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________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ पुण्य और पाप श्रमण संस्कृति के प्रतिष्ठापक महान आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप दोनों को संसार का कारण बताकर उनके प्रति राग और संसर्ग करने का स्पष्ट निषेध किया है। उनका कथन उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है : कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह त होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।।१४५ ।। सोवणियं पिणियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।१४६ ।। तम्हा दु कुसीलेहि य रायं मा कुणह मा व संसगं । साहीणो हि विणासो कुसील संसग्गरायेण ||१४७।। अशुभ कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है ऐसा तुम जानते हो, किन्तु वह सुशील कैसे हो सकता है जो शुभ कर्म (जीव को) संसार में प्रवेश कराता है। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी के समान सोने की बेड़ी भी पुरुष को बांधती है उसी प्रकार अशुभ (पाप) कर्म के समान शुभ (पुण्य) कर्म भी जीव को बाँधता है। इसलिये इन दोनों कुशीलों (पुण्य-पाप) के साथ राग व संसर्ग मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग व राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है। शुभ भावों से पुण्य कर्म का बंध होता है और अशुभ भावों से पाप कर्म का बंध होता है। बंध चाहे पाप का हो या पुण्य का, वह है तो आखिर बंध ही, उससे आत्मा बंधता ही है, मुक्त नहीं होता । मुक्त तो शुभाशुभ भावों के अभाव से अर्थात् शुद्ध भाव (वीतराग भाव) से ही होता है। अतः मुक्ति के मार्ग में पुण्य और पाप का स्थान अभावात्मक ही है। इस सन्दर्भ में 'योगसार' में योगीन्दुदेव लिखते हैं : पुण्णेि पावइ सग्ग जिउ पावएँ णरय-णिवासु। वे छडिवि अप्पा मुणई तो लब्भई सिववासु ।।३२ ।। पुण्य से जीव स्वर्ग पाता है और पाप से नरक पाता है। जो इन दोनों को छोड़कर आत्मा को जानता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इसी तरह का भाव आचार्य पूज्यपाद ने 'समाधि शतक' में व्यक्त किया है। कुन्दकुन्दाचार्यदेव भी इस संबंध में स्पष्ट निर्देश देते हैं :१. अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।।८३ ।। सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णसु । परिणामो णाण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।।१८१ ।।' पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। तथा दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा आत्म-परिणाम आगम में दुःख-क्षय (मोक्ष) का कारण कहा है। पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।।८३ ।।२ जिन-शासन में कहा है कि व्रत, पूजा आदि पुण्य हैं और मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम धर्म है। नाटक समयसार में पुण्य-पाप को चंडालिन के युगलपुत्र (जुड़वाँ भाई) बताते हुए लिखा है कि ज्ञानियों को दोनों में से किसी की भी अभिलाषा नहीं करना चाहिए :जसैं काहू चंडाली जुगल पुत्र जने तिनि, एक दीयौ बांभन कै एक घर राख्यौ है। बांभन कहायौ तिनि मद्य मांस त्याग कीनौ, चंडाल कहायौ तिनि मद्य मांस चाख्यौ है ।। तैसैं एक वेदनी करम के जुगल पुत्र, एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ है। दुहं मांहि दौर धूप, दोऊ कर्मबंध रूप, या ग्यानवंत नहिं कोउ अभिलाख्यौ है ।।३।। सांसारिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य को भला कहा जाता है किन्तु मोक्षमार्ग में तो पुण्य और पाप दोनों कर्म बाधक ही हैं :मुकति के साधक कौं बाधक करम सब, आतमा अनादि को करम मांहि लुक्यौ है। एते पर कहै जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ, सोई महा मूढ़ मोख मारग सौं चुक्यौ है।।१३।। २. अष्टपाहुड़ (भावपाहुड़) ३. नाटक समयसार, पुण्य-पाप एकत्वद्वार, कविवर पं. बनारसीदास ४. वही 9
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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