SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । सर्वार्थसिद्धि में ये सब आकुलतायें एक तो हैं ही नहीं, यदि हैं भी तो अति अल्प हैं, जिनकी पूर्ति सहज | हो जाती है। अत: वहाँ के सुख की तुलना मोक्ष से की गई है। यद्यपि मोक्षसुख सर्वार्थसिद्धि के सुख से भिन्नप्रकार का निराकुल एवं अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप है। अत: सर्वार्थसिद्धि से गुणनफल निकालना तो संभव नहीं है; फिर भी अधिक बताने का दूसरा साधन न होने से अनन्तगुणा कह देते हैं। सचमुच मोक्ष का सुख | तो अनुपम है, उससे संसार के किसी भी सुख की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वह सम्पूर्ण इच्छा | के अभाव में है और संसार में सर्वार्थसिद्धि में अभी कषायें और इच्छा विद्यमान है, भले वह अति मन्द है, पर हैं तो सही। इन सब कथनों से यह तो सिद्ध होता ही है कि जितनी इच्छायें कम होंगी, उतना ही सुख अधिक होगा। भोग-सामग्री सुख का साधन नहीं है। अत: यदि हम सचमुच सच्चा सुख चाहते हैं तो सम्पूर्ण संसार को असार जानकर मुक्ति की साधना करनी चाहिए। यही संदेश हमें सर्वार्थसिद्धि के जीवों के परिचय से प्राप्त होता है। वस्तुत: विषयों के अनुभव से जो सुखाभास होता है, वह भी पराधीन है, बाधाओं से युक्त है, अन्तराय (बाधा) सहित है, कर्मबन्धन का कारण है। इसकारण वह वस्तुतः दुःख ही है। सर्वार्थसिद्धि में समकित होने के कारण देवों ने अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद ले लिया है, इसकारण उन्हें लौकिक सुख लुभा नहीं पाते। अत: वे बाह्य विषयों के बिना ही सुखी हैं। यदि भोग सामग्री में सुख हो तो ऊपर-आर के स्वर्गों में भोग संयोग कम क्यों होते गये ? ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में अधिक भोग सामग्री होना चाहिए थी। काय का प्रविचार (भोग) मात्र ऐशान स्वर्ग तक ही होता है। रसना की विषयभूत भूख ऊपर अधिक अन्तराल से लगती, उसकी पूर्ति भी कंठ में अमृत झरने से हो जाती। वे रसना का स्वाद ही नहीं जानते । सर्वार्थसिद्धि में ३३ हजार वर्ष बाद कंठ में अमृत झरता है और भूख का विकल्प शांत हो जाता है। इन सब शास्त्रीय प्रमाणों से भी सिद्ध है कि विषयों में सुख नहीं है। यहाँ यह कहा गया है कि अति ही निकट में जिसे तीर्थंकर पद प्राप्त होना है, उस वज्रनाभि ने जिसप्रकार | RPFVDFNEFootE |
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy