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________________ १२|| थीं; परन्तु उनका तो मात्र गौरवशाली सिद्धपद ही लक्ष्य था। उसे ही केन्द्रबिन्दु बनाकर वे नानाप्रकार के || || तप करते थे। उन्हें अन्य कुछ भी इच्छा नहीं थी। इसप्रकार निर्वांछक तप करने वाले और विशुद्ध भावनाओं के धारण करने वाले मुनि वज्रनाभि को आत्मविशुद्धि के साथ यदि जगत की नाना लौकिक ऋद्धियाँ भी उपलब्ध हो गईं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर भी उन्होंने तो ऋद्धियों के प्रति उपेक्षा ही रखी। वे आत्मसाधना द्वारा विशुद्धि को प्राप्त होते-होते उपशम श्रेणी को प्राप्त होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँच गये। अन्तर्मुहूर्त में पुन: सातवें गुणस्थान में आ गये। आयु के अन्त में प्रायोपगमन सन्यास लेकर अन्न जल का त्याग कर दिया। इस सन्यास में रत्नत्रय की विशेष शुद्धता होती है। इस संन्यास में वज्रनाभि मुनिराज आगम के नियम के अनुसार स्वयं भी अपने शरीर का कोई उपचार नहीं करते थे। दूसरों से सेवा व उपचार कराने की तो बात ही कहाँ रही ? यद्यपि उनका शरीर अत्यन्त कृश था, तथापि स्वाभाविक धैर्य के अवलम्बन द्वारा वे कई दिनों तक निश्चल चित्त बैठे रहे। क्षुधा, तृषा आदि परिषहों को सहते, दस धर्मों का पालन करते, बारह भावनाओं को भाते, वैराग्य भावना का निरन्तर चिन्तन करते वे पुन: उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हुए। इसतरह उत्कृष्ट वीतराग भाव को प्राप्त कर ग्यारहवें गुणस्थान में प्राणों का त्याग कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। लोक के अग्रभागरूप जो सिद्धों का धाम है। उससे मात्र बारह योजन नीचे यह सर्वार्थसिद्धि स्वर्गलोक है। वहाँ उत्पन्न हुए जीव अन्तर्मुहूर्त में युवा हो जाते हैं। सर्वार्थसिद्धि में जो अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। वहाँ अहमिन्द्र अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं की पूजन करते हैं और अपने क्षेत्र में ही विचरते हैं। वे अहमिन्द्र वहाँ | रहकर ही समस्त लोक में विराजमान जिन प्रतिमाओं की भी पूजा करते हैं, तीर्थंकर ऋषभदेव के जीव उस पुण्यात्मा अहमिन्द्र ने अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्ति जिनपूजा और तत्त्वचर्चा में ही लगाई थी। वे परस्पर REvFCEF to EEE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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