SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | कर लिया, प्रदेशभेद का निषेध करके भी प्रदेशों को अभेदरूप से रखकर क्षेत्र को भी सुरक्षित कर लिया; | लेकिन पर्यायों को निकालकर काल को खण्डित कर दिया, जबकि इसी समयसार में आगे ऐसा कहा गया है कि - न द्रव्येण खण्डयामि, “न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि, सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्र भावोऽस्मि । इसलिए पर्यायभेद का निषेध कर पर्यायों को अभेदरूप से रखकर काल को भी पु सुरक्षित करना चाहिए था; परन्तु पर्याय को शामिल न करके दृष्टि के विषय को काल से खण्डित क्यों कर दिया गया है ? (२७६) 15 Eb श ला का रु ष उत्तर - दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्य, अनादि - अनन्त - त्रिकाली ध्रुव नित्य, असंख्या प्रदेशी - अखण्ड एवं अनंतगुणात्मक - अभेद, एक कहा गया है। इसमें जिसप्रकार सामान्य कहकर द्रव्य को अखण्ड रखा गया है, असंख्यातप्रदेशी - अखण्ड कहकर क्षेत्र को अखण्ड रखा गया है और अनंतगुणात्मकअभेद कहकर भाव को अखण्ड रखा गया है; उसीप्रकार अनादि-अनन्त त्रिकाली ध्रुव नित्य कहकर काल को भी अखण्डित रखा गया है। अन्त में एक कहकर सभीप्रकार की अनेकता का निषेध कर दिया गया है । इसप्रकार दृष्टि के विषयभूत त्रिकालीध्रुव द्रव्य में स्वकाल का निषेध नहीं किया गया है, अपितु विशिष्ट पर्यायों का ही निषेध किया गया है। दृष्टि के विषय में अभेद सामान्य का निषेध नहीं किया गया, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, केवलज्ञान - इन विशिष्ट पर्यायों का दृष्टि के विषय में निषेध है । केवलज्ञान भी विशिष्ट पर्याय होने से दृष्टि के विषय में शामिल नहीं है । दृष्टि के विषय में निगोद से लेकर मोक्ष तक की समस्त पर्यायों का अभेद शामिल है, उस अभेद का नाम काल का अभेद है और काल का अभेद होने से वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है, इसलिए उस अभेद का नाम द्रव्य है, पर्याय नहीं; पर्याय तो उसके अंश का नाम है; भेद का नाम है । श्रोता के मन में शंका हुई - दृष्टि के विषय में अभेद के रूप में पर्याय को शामिल क्यों किया ? देववाणी में समाधान आया - • हे भव्य ! जो अभेद के रूप में काल को शामिल किया है, उसका नाम द्र roofs to व्य दृ ष्टि का वि ष य सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy