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________________ २६४ ||| अनित्यता में काल की अपेक्षा ही मुख्य है । अतः नित्य का अर्थ; 'वस्तु की सदा उपस्थिति' मात्र इतना ही अभीष्ट नहीं है, अपितु उसमें प्रवाह की निरन्तरता भी सम्मिलित है । यह नित्यता ही काल की अखण्डता ला है, जो दृष्टि के विषयभूत द्रव्य का अभिन्न अंग है। श का पु रु ष काल की अपेक्षा वस्तु के नित्य और अनित्य- ये दो पक्ष होते हैं। जब हम वस्तु को नित्य कहते हैं तो उस नित्य का अर्थ हम यह समझते हैं कि 'जो हमेशा कायम रहे' उसका नाम नित्य है; परन्तु यहाँ यह कहते हैं कि जो निरन्तर त्रिकाल पलटनापना है, वह भी काल की नित्यता है । ‘अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक प्रत्येक द्रव्य प्रति समय पलटेगा, एक समय भी पलटे बिना नहीं रहेगा, यह भी काल की नित्यता है । जैसा वस्तु का स्वभाव ‘कभी नहीं पलटना है' वैसा ही वस्तु का स्वभाव 'प्रतिसमय पलटना' भी है। | वस्तु का द्रव्यस्वभाव कभी नहीं पलटनेवाला है और वस्तु का पर्यायस्वभाव प्रतिसमय पलटनेवाला है । ये | दोनों ही वस्तु के नित्य स्वभाव हैं । श्रोता को शंका है कि “हे प्रभो ! यदि यह पलटना भी वस्तु का नित्य स्वभाव है तो उसका पर्यायस्वभाव नाम क्यों रखा ?" दिव्यवाणी में समाधान आया - "पलटनेवाला स्वभाव होने से उसका पर्यायस्वभाव नाम रखा । पर्यायस्वभाव वस्तु का ही स्वभाव होने से द्रव्यस्वभाव ही है। पर्याय के बारे में, पर्याय की तरफ से कहा जाता है, इसलिए पर्यायस्वभाव कहा जाता है। पर्यायस्वभाव का तात्पर्य पर्याय का स्वभाव नहीं है, बल्कि द्रव्यों और गुणों में जो निरन्तर परिणमन होता है, उसको पर्यायस्वभाव कहा जाता है। वस्तुत: द्रव्य व गुणों का स्वभाव स्वयं परिणमनशील है । 'वस्तु में प्रतिसमय परिवर्तन होता है' वस्तु का पर्यायस्वभाव यह बतानेवाला है । यह पर्यायस्वभाव नित्य है, अनित्य नहीं । जिसप्रकार द्रव्य का भी नहीं पलटना स्वभाव है; उसीप्रकार द्रव्य का निरन्तर पलटना भी स्वभाव है। प र्या य भी ष य में शा है ? सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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