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________________ BREE FE है। इन पर्यायों रूप मैं नहीं हूँ। - ऐसा कहकर द्रव्य-पर्यायों को मुख्य किया है। तथा इन्हीं पर्यायों को | पृथक् करने की बात की है। वहाँ उन्होंने जब अशुद्ध राग-द्वेषादि पर्यायों की पृथकता की भी बात नहीं की तो केवलज्ञान जैसी शुद्ध पर्याय की पृथकता की चर्चा का तो प्रश्न ही नहीं उठता।। | इसीप्रकार प्रवचनसार गाथा १४४ में ‘पज्जयगऊण किच्चा' लिखा है, जिसका अर्थ है - 'पर्याय को गौण करके' अर्थात् जो पर्याय को गौण करके अकेले द्रव्य के पक्ष को ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिकनय है तथा जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिकनय है। यहाँ स्पष्टरूप से गौण करने को लिखा है, अभाव करने को नहीं। ___ यदि कहीं व्यवहार का निषेधपरक अर्थ निकलता भी है तो उसे लौकिक व्यवहार में न उलझने के अर्थ में ही ग्रहण करना। नयों के निषेध के अर्थ में ग्रहण नहीं करना । जैसे कि - शादी-विवाह, तिया-तेरहवाँ जैसे लोकव्यवहारों अथवा ऐसी ही अन्य-औपचारिकताओं की पूर्ति में अपने जीवन के अमूल्य क्षण बर्बाद नहीं करने के अर्थ में कहा गया है - ऐसा समझना । व्यापार धंधों में अधिक नहीं उलझना - ऐसा निषेधपरक अर्थ करना । नयों के भेदपरक विषय का प्रतिपादन करने का निषेध नहीं मानना । नयों के प्रतिपादन में तो मुख्य-गौण की ही व्यवस्था है, निषेध की नहीं। समयसार गाथा ७३ की टीका में जो सामान्य-विशेषात्मक आत्मद्रव्य को दृष्टि का विषय कहा है, वहाँ सामान्य का अर्थ दर्शन एवं विशेष का अर्थ ज्ञान है और वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है; जबकि अन्यत्र जहाँ विशेष का अर्थ भेद होता है, वह पर्यायार्थिकनय का विषय बनने से पर्याय ही है, इसकारण वह दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं हो सकती। देखो, जिसप्रकार द्रव्यांश का भेद (विशेष) तो दृष्टि के विषय में नहीं है; पर द्रव्यांश का अभेद (सामान्य) दृष्टि के विषय में सम्मिलित रहता है, क्षेत्र का भेद (प्रदेशों का भेद) दृष्टि के विषय में नहीं रहता; पर क्षेत्र का अभेद प्रदेशों की अखण्डता दृष्टि के विषय में सम्मिलित रहती है तथा गुण का भेद दृष्टि के || २२ Saali
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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