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________________ 464 अव्यवस्थित कैसे हो सकती है? जब एक प्रभावी राजा के राज्यशासन में चोर, डाकू, हत्यारे, परस्त्री लम्पट आदि नहीं टिक सकते तो सर्व शक्तिमान ईश्वर के शासन में ये सब दुष्कृत कार्य कैसे हो सकते हैं ? ये कुछ प्रश्न हैं। ईश्वरवादियों का मानना है कि - "ऐसी चित्त-विचित्र और आश्चर्यजनक सृष्टि की संरचना सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं कर सकता। अत: जगत में कोई ऐसी अदृश्य ईश्वरीय शक्ति की सत्ता होनी ही चाहिए।" यहाँ, ध्यान देने योग्य बात यह है कि - ऐसा माननेवाले ये ईश्वरवादी जगत के बहुत से कार्यों के कर्ता स्वयं भी बने बैठे हैं। ऐसा कौन ईश्वरवादी है जो अपने जीवन निर्वाह के कार्यों को स्वयंकृत नहीं मानता। जैसे कि - धनोपार्जन, कुटुम्ब का पालन-पोषण, समाजसेवा, राष्ट्रोन्नति आदि कार्यों को तो सभी स्वयंकृत मानते ही हैं न ? और इन कार्यों का श्रेय भी स्वयं ही लेना चाहते हैं। यदि ऐसा मानते हैं तो ये कैसे ईश्वरवादी हैं ? जो काम बन जाते हैं, उनका श्रेय स्वयं ले जाते हैं और जो काम बिगड़ जाता है, उसे ईश्वर के माथे मड़ देते हैं। कहते भी हैं "हमने तो बहुत कोशिश की; परन्तु हमारे करने से क्या होता ? ईश्वर की इच्छा ऐसी ही थी। तुलसीदासजी ने कहा भी है - ‘हुइए वही जो राम रचित राखा।' 'मुस्लिम भाई! कहते हैं - मालिक की मर्जी ही ऐसी थी। 'खुदा की मर्जी के बिना पत्ता भी तो नहीं हिलता।' ईश्वर और खुदा काम बिगड़ने पर ही याद आते हैं। सचमुच ऐसे भक्तों पर वह बुन्देलखण्डी कहावत चरितार्थ होती है कि 'खीर में सांझा और महेरी (मक्की की राबड़ी) में न्यारा' जब भला-भला सब तूने किया तो बिगड़ने में भगवान की इच्छा को बीच में क्यों ले आता है ? भले ही विश्वव्यवस्था ईश्वरकृत हो या ऑटोमेटिक (स्वसंचालित) हो । हम तो दोनों ही स्थितियों में पर के कार्यों के कर्ता नहीं हैं। हमारे माथे तो कुछ भी करने/कराने के उत्तरदायित्व का बोझ नहीं है। फिर | भी संसारी प्राणी पर के कार्यों के कर्तृत्व के कल्पित अहंकार में - काम को सफल करने में स्वयं को इतना ||
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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