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________________ CREF उत्तर - हाँ! हाँ! सुनो! जब आत्मा स्वयं मोह भाव के द्वारा आकुलता करता है, तब अनुकूलता, प्रतिकूलता रूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय के भेद से दो प्रकार का होता है। जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव शरीर में रुकता है, तब उसके रुकने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे आयु कर्म कहते हैं। यह आयुकर्म नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है। जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे नामकर्म कहते हैं। यह शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। इसकी प्रकृतियाँ ९३ हैं। जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह गोत्रकर्म भी उच्चगोत्र और नीचगोत्र - इसप्रकार दो भेदवाला है। इन आठ मूल भेदों में भी १४८ प्रभेद हैं, जिन्हें कर्म प्रकृतियाँ कहते हैं। यह कर्मों की संक्षिप्त जानकारी है। विस्तार से भेद-प्रभेद समझने की रुचिवाले गोम्मटसार कर्मकाण्ड पढ़ें। राग-द्वेष-मोह - ये तीन इन कर्मों के बन्धन के मूल हैं, इन्हें भावकर्म कहते हैं। इनके सिवाय यह शरीर नोकर्म है। द्रव्यकर्म खली के समान हैं, भावकर्म तेल के समान हैं और नोकर्म तेलयंत्र (कोल्ह) के समान हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न आकाश के समान है। जिसप्रकार तेली के यहाँ यंत्र (कोल्ह), खली, तैल एवं आकाश - ये चार पदार्थ हैं, उसीप्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म और आत्मा का एक ही स्थान पर संयोग है। आत्मा इन तीनों में रहता है। उपर्युक्त तीनों कर्मों में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुण हैं; परन्तु आत्मा में वर्णादि नहीं हैं। वह तो मात्र || ज्ञान ज्योति से युक्त है। जीवद्रव्य निराकार है, ज्ञान-दर्शन उसके गुण हैं। कर्माधीन होकर यह जीव मनुष्य, ||१९
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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