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________________ | शुक्लध्यान के लिए जिनदीक्षा ही सहकारी है, शुक्लध्यान मुक्ति के लिए सहकारी है। जो शुक्लध्यान के | द्वारा कर्मों को नाश करने का पुरुषार्थ नहीं करते वे संसार में ही परिभ्रमण करनेवाले हैं।" इसप्रकार बहुत विस्तार के साथ भरतपुत्र रविकीर्तिराज ने जिनदीक्षा की महिमा की। | इस कथन को सुनकर वहाँ उपस्थित सर्व राजकुमार बहुत हर्ष व्यक्त करते हुए अपने मन में दीक्षा लेने का विचार करने लगे। उन्होंने विचार किया कि “जवानी उतरने के पहले, शरीर की सामर्थ्य घटने के पहले एवं स्त्री-पुत्र आदि की छाया पड़ने के पहले ही आत्महित में जाग्रत हो जाना चाहिए, स्वरूप में सजग हो जाना चाहिए। अब हम वयस्क हो गये हैं, अतः पिताजी हमारे विवाह आदि करेंगे। स्त्रियों के पाश में पड़ना 'मक्खी का तेल के अंदर पड़ने के समान' तड़फ-तड़फ कर जीवन-मरण से भी भयंकर है। स्त्री के ग्रहण करने के बाद सुवर्ण को ग्रहण करना, सुवर्ण को ग्रहण करने के बाद जमीन-जायदाद को ग्रहण करना पड़ता है तथा स्त्री, सुवर्ण व जमीन को ग्रहण करनेवाले जंग चढ़े हुए लोहे के समान होते हैं। इसी कारण से मोह की वृद्धि होकर दीर्घ संसारी बनते हैं। तात्पर्य यह है कि कन्याग्रहण के बाद उसके लिए आवश्यक जेवर वगैरह बनवाने पड़ते हैं एवं अर्थसंचय करना पड़ता है। बाद में यह भावना होती है कि कुछ अचल संपत्ति का निर्माण करें। इसप्रकार मनुष्य संसार के बंधन में बंधता ही चला जाता है। ___ यद्यपि हम लोगों को कन्याओं से विवाह करने पर सुवर्ण, संपत्ति, राज्य आदि के लिए चिंता करने की | लो जरूरत नहीं पड़ेगी; क्योंकि पिताजी के द्वारा अर्जित अटूट संपत्ति व विशाल राज्य मौजूद है, परन्तु उन सबसे आत्महित में बाधा तो होगी ही। यह सब अपने अध:पतन के कारण तो हैं ही। अत: शादी-विवाह भूलकर भी नहीं करना चाहिए। विपुल संपत्ति के होने पर उसका परित्याग करना बड़ी बात है। जवानी में दीक्षा लेना उससे भी बड़ी बात है एवं परमात्मतत्त्व को जानना जीवन का सार है। इन सबकी प्राप्ति होने पर हमसे बढ़कर श्रेष्ठ और कौन हो सकते हैं? कुल, बल, संपत्ति, सौन्दर्य इत्यादि के होते हुए, उन सबका परित्याग कर तपश्चर्या के लिए इस काया को अर्पण करें तो विशिष्ट फलदायक है। इससे बढ़कर दुनिया में कोई बड़ा काम नहीं है। 5 FEF VF fo_EEPF48 45
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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