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________________ श ९९७ || पुनः आगे आने का आग्रह किया; फिर भी जब वे नहीं आये तो उनसे न आने का कारण पूछा। उत्तर में | उन्होंने कहा - "हमने सूक्ष्म त्रस - स्थावर जीवों की रक्षा करने के कारण उस सचित्त भूमि के मार्ग से महल में प्रवेश नहीं किया।" यह कहकर जब वे वापस लौटने लगे तब भरतजी ने उनके लौटकर जाने का कारण जानकर प्रसन्नता प्रगट की और कहा - "आप अभिनन्दनीय हैं, पूजन महोत्सव के मंगलमय अवसर पर सचित्त भूमि पर चलकर नहीं आये, एतदर्थ आपका जितना सम्मान करें, थोड़ा है।" ला का पु रु ष आगंतुकों ने कहा - "हे देव! हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव तो होते ही हैं, त्रस जीव भी रहते हैं - ऐसे सर्वज्ञ के वचन हमने सुने हैं। अनेक त्रस जीव तो चलते-फिरते दृष्टिगोचर भी होते हैं, वे सब हम-तुम जैसे ही जीव हैं, मरणभय से भयभीत हैं; अत: इन्हें पैरों से रूंदना - कुचलना योग्य नहीं है । " यह सुनकर भरतजी ने उनकी प्रशंसा की और उन्हें दान-मान आदि देकर सम्मानित किया। यह देख| सुनकर अव्रतियों ने भी जीवों की रक्षा करने का संकल्प किया और भरत के द्वारा किए गए व्रतियों के सम्मान | की अनुमोदना की। च क्र व - भ त tho F5 a to 54 रा ब्रा ह्म ण चक्रवर्ती से सम्मानित व्यक्तियों ने अपने व्रतों को और अधिक दृढ़ता से पालन किया। भरतजी ने उन्हें उपदेश दिया कि सब आगंतुक महानुभावों को अर्हन्त भगवान की पूजा अवश्य करना चाहिए। यह पूजा चार प्रकार की है - १. सदार्चना या नित्यमह, २ चतुर्मुख, ३. कल्पद्रुम और ४. अष्टाह्निका ( इन्द्रध्वज ) । सदाचन - प्रतिदिन अपने घर से अष्टद्रव्य ले जाकर जिनालय में इन चारों पूजाओं में से किसी एक पूजन के माध्यम से जिनेन्द्रदेव की पूजा करना सदार्थन या नित्यमह पूजा कहलाती है। शक्ति के अनुसार स्था नित्य दान देते हुए मुनिराजों की पूजा भी नित्यमह पूजा है। प चर्तुर्मुख या सर्वतोभद्र पूजा - यह मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा उत्सव के साथ की जाती है। कल्पद्रुम पूजा यह पूजा चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक (मुँहमागा) दान देकर की जाती है। व र्ण की ना सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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