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________________ CREFE अन्त में भरतजी का बाहुबली के प्रति किया गया यह त्याग जगत भले न जाने, पर बाहुबली की सूक्ष्म दृष्टि से और पैनी पकड़ से यह बात छिपी नहीं रही। इसकारण से उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। वस्तुतः बाहुबली जीतकर भी हार गये; क्योंकि वे जानते थे कि भरत चक्रवर्ती हैं और पोदनपुर के आधीन किए बिना उनका चक्ररत्न आयुधशाला में प्रवेश कर ही नहीं सकता। अत: भरतजी को तो युद्ध करना अनिवार्य था; पर मैंने | दुराग्रह क्यों किया ? बाहुबली की विचारधारा चल रही थी कि “भैया भी कैसे राजनीतिज्ञ हैं ? राजनीति तो यह कहती है कि उन्हें अपना चक्ररत्न जैसा प्रबल अजेय हथियार का आलम्बन छोड़ना ही नहीं चाहिए था। उन्होंने निहत्थे होकर युद्ध लड़ा ही क्यों ? पुण्योदय से प्राप्त चक्ररत्न ने ही जब उन्हें छहखण्ड की विजय दिलाई थी तो मुझको जीतने के लिए शारीरिक बलप्रयोग को क्यों स्वीकार किया? बस, नरसंहार से डर कर ही तो उन्होंने ऐसा किया। दयालु हैं न ! अस्तु जो कुछ होना था सो हुआ। अब उनका साम्राज्य उन्हें लौटाकर मैं जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगा । वे सुख-शान्ति से रहें और अपने पुण्योदय से प्राप्त चक्रवर्तित्व का आनन्द निराबाध और निःशल्य होकर भोगे।" यहाँ ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त तीनों युद्ध और उनमें बाहुबली की विजय की चर्चा आचार्य जिनसेन के आदिपुराण के आधार पर लिखी गई है। भरतेश वैभव के कर्ता कवि रत्नाकर का कथन है कि एक साधारण बाहुबली से चक्रवर्ती हार ही नहीं सकते, क्योंकि उनके बाहुबली से गई गुना अधिक बल था, जिसकी चर्चा पीछे कर आये हैं।। बाहुबली का वैराग्य - ऐसा विचार कर बाहुबली ने भाई भरत से कहा - "हे आयुष्मान ! यह राज्य लक्ष्मी वस्तुत: आपकी ही है; क्योंकि आप चक्रवर्ती राजा हैं। मुझे सचमुच युद्ध कर आपका अपमान करने का कोई हक नहीं था। मुझसे मिथ्या अहंकार के वशीभूत हो जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। अब यह राजसत्ता का सुख मेरे योग्य नहीं है। मैं इसकी असारता को भलीभांति समझ चुका हूँ। मेरा मन अब इससे विरक्त हो गया है। अत: अब मैं भगवान ऋषभदेव के चरणों में जिनदीक्षा लूँगा।" || १४ F_ncy | E FEE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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