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________________ EFFE १०|| छह हजार धनुष की थी। उससमय यहाँ जो मनुष्य थे, उनके शरीर के अस्थिबन्धन वज्र के समान सुदृढ़ थे, | वे अत्यन्त सौम्य और सुन्दर आकार के धारक थे। उनका शरीर तपाये हुए सुवर्ण के समान दैदीप्यमान था। मुकुट, कुण्डल, हार, करधनी, कड़ा, बाजूबन्द और यज्ञोपवीत इन आभूषणों को वे सर्वदा धारण किये रहते थे। अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहते हैं। उनके वक्षःस्थल बहुत ही विस्तृत होते हैं। उन्हें तीन दिन बाद भोजन की इच्छा होती है सो कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए बदरीफल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते हैं। उन्हें न तो परिश्रम करना पड़ता है, न पसीना ही आता है और न अकाल में उनकी मृत्यु ही होती है। वे बिना किसी बाधा के सूखपूर्वक जीवन बिताते हैं। वहाँ की स्त्रियाँ भी उतनी ही आयु की धारक होती हैं, उनका शरीर भी उतना ही ऊँचा होता है और वे अपने पुरुषों के साथ ऐसी शोभायमान होती हैं जैसी कल्पवृक्षों पर लगी हुई कल्पलताएँ। वे स्त्रियाँ अपने पुरुषों में अनुरक्त रहती हैं और पुरुष अपनी स्त्रियों में अनुरक्त रहते हैं। आयु के अन्त में पुरुष को जम्हाई और स्त्री को छींक आती है। उसी से पुण्यात्मा || पुरुष अपना-अपना शरीर छोड़कर स्वर्ग चले जाते हैं। उससमय के मनुष्य स्वभाव से ही कोमल परिणामी होते हैं, इसलिए वे भद्रपुरुष मरकर स्वर्ग ही जाते हैं। स्वर्ग के सिवाय उनकी और कोई गति नहीं होती। इसके बाद सुषमा नामक दूसरा काल ३ कोड़ा-कोड़ी सागर का था, उसमें मनुष्यों की आयु ३ पल्य की होती थी और उनका शरीर ४ हजार धनुष ऊँचा होता था। तीसरा सुषमादुःषमा नाम का काल यथाक्रम से प्रवृत्त हुआ। उसकी स्थिति दो कोड़ाकोड़ी सागर की थी। उससमय इस भारतवर्ष में मनुष्यों की स्थिति एक पल्य की थी। उनके शरीर एक कोश ऊँचे थे, वे श्यामवर्ण थे और एक दिन के अन्तर से आँवले के बराबर भोजन ग्रहण करते थे। इसप्रकार क्रम-क्रम से तीसरा काल व्यीतत होने पर जब इसमें पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया, तब कल्पवृक्षों की सामर्थ्य घट गयी और ज्योतिरङ्ग जाति के कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यन्त मन्द हो गया। तदनन्तर आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चमकीला चन्द्रमा और पश्चिम में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलायी पड़ा। DB DEPOESNE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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