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________________ । करता हूँ। उनके चित्त को दुखाने के लिए मैंने कभी भी प्रयत्न नहीं किया। परंतु ये सब मुझसे भेद रखते हैं। न मालूम मैंने इनका क्या बिगाड़ा है ? ये इसप्रकार मन में मेरे प्रति विरोध क्यों रखते हैं ?" भरतजी ने आगे कहा – “बुद्धिसागर! आप इस बात को अपने तक ही सीमित रखें । मैंने तुमसे ही मेरे भाइयों के व्यवहार के विषय में कहा है और किसी से भी आजतक नहीं कहा है। भाइयों का मेरे प्रति जो उपेक्षापूर्ण व्यवहार है, इस बात को मैंने माँ से भी नहीं कहा। मातायें दुःखी न हों इसकारण मैं उन लोगों की प्रशंसा ही करता आ रहा हूँ।" बुद्धिसागर बोले - "स्वामिन् आप जरा सहन करें, वे आपसे छोटे हैं। आपके साथ उन्होंने ऐसा व्यवहार किया तो आपका क्या बिगड़ा है ? वे नासमझ हैं। आपके साथ प्रेम से रहने के लिए इन्हें समझदारी की जरूरत है। तीन लोक में जितने भी बुद्धिमान हैं, विवेकी हैं। वे सब आपके चातुर्य को देखकर प्रसन्न होते हैं। यदि आपके भाई आपके साथ नाक-भौं सिकोड़कर रहें तो भी आपका क्या बिगड़ता है ? स्वामिन्! असली बात तो और ही है। वस्तुत: आपके भाई उद्धत नहीं हैं। मैं उनको अच्छी तरह जानता हूँ। वे आपके पास आने से डरते हैं। क्या आपकी गंभीरता कोई सामान्य है ? । राजन् ! इस जवानी में अगणित संपत्ति को पाकर न्यायनीति की मर्यादा को रक्षण करने के लिए आप ही समर्थ हो। आपके भाइयों में ऐसा विवेक कहाँ से आ सकता है ? अभी तक उन्होंने सामान्य व्यवहार भी नहीं सीखा है। इसलिए वे आपके पास में आने के लिए संकोच करते हैं। राजन्! आपके जितने भी सहोदर हैं वे अभी छोटे हैं। उनकी उमर भी कुछ अधिक नहीं है। ऐसी अवस्था में वे अभी बचपन को नहीं भूले हैं। इसीलिए वे बाहुबली से नहीं डरते, अपितु आपसे डरते हैं। वे बाहुबली के साथ कैसे भी अविवेक से बर्ताव करें, उससे बाहुबली तो प्रसन्न ही होता है। परंतु आप उनके पागलपने को कभी पंसद नहीं करेंगे, | सर्ग | यह वे अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए आपके सामने नहीं आते हैं। वे अपने ही बर्ताव से स्वयं लज्जित हैं, ॥ १३ FFFFFF
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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