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________________ १५१ श ला का पु रु ष उपर्युक्त चार भेदों के अतिरिक्त धर्मध्यान के ६ भेद और भी कहे गये हैं, जो इसप्रकार हैं। - १. उपायविचय - आत्मा का कल्याण करनेवाले जिनोपदिष्ट उपायों का चिन्तवन करना । २. जीवविचय - जीवद्रव्य व जीवतत्त्व के स्वरूप एवं गुणस्थान आदि का चिन्तवन करना । ३. अजीवविचय - अजीवद्रव्यों के स्वरूप का चिन्तवन करना अजीवविचय है । ४. विरागविचय - बारह भावना आदि के माध्यम से शरीर की अपवित्रता और भोगों की असारता का चिन्तवन करना विरागविचय है । ५. भवविचय - चारों गतियों में भ्रमण करनेवाले जीवों को मरने के बाद जो पर्याय प्राप्त होती है, उसे भव कहते हैं। यह भव दुःखरूप है तथा यह मनुष्यभव भव का अभाव करने को मिला है। भव (जन्ममरण) बढ़ाने के लिए नहीं मिला ऐसा चिन्तवन करना भवविचय धर्मध्यान है । - ६. कारणविचय (हेतुविचय) - तर्क व युक्ति का अनुसरण करते हुए स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेकर तत्त्व का चिन्तवन करना हेतुविचय है । इसप्रकार धर्मध्यान के दस भेद हो जाते हैं। इनके सिवाय बाह्य व आभ्यन्तर के भेद से भी धर्मध्यान के दो भेदों का उल्लेख आगम में है। शास्त्र के अर्थ खोजना, शीलव्रत पालना, गुणानुराग रखना, प्रमाद | रहित होना तथा जिसे अन्य लोग भी अनुमान से जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते हैं तथा जिसे केवल अपना आत्मा और सर्वज्ञदेव ही जान सके, वह आभ्यन्तर निश्चय धर्मध्यान है । दि व्य दे श ना में ध्या न का स्व रू प द इसप्रकार धर्मध्यान के आश्रय से अशुभभाव से बचे रहनेरूप व्यवहार धर्मध्यान होता है तथा शुद्धात्मा के आश्रय से निश्चय धर्मध्यान होता है । निश्चय धर्मध्यान की पूर्व भूमिका में इन शुभभावरूप दस प्रकार सर्ग के व्यवहार धर्मध्यानों का आश्रय अवश्य होता है। १२
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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