SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । २. अपायविचय - शुभाशुभ भावों से मुक्त होने का चिन्तन करना अपायविचय है। राग-द्वेष-कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में निंद्य इहलोक व परलोक से छूटने का उपाय सोचना अपायविचय है। अपाय कहो या उपाय दोनों एकार्थवाचक हैं। उन्मार्ग में भटके जीवों को सन्मार्ग में लाने के उपायों पर विचार करना ही अपायविचय है तथा मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञान नेत्र अन्धकाराछन्न हो रहे हैं, जो सर्वज्ञप्रणीत उपदेश से विमुख हो रहे हैं, सम्यक्पथ का ज्ञान न होने से जो उन्मार्ग में भटक रहे हैं, उन्हें सन्मार्ग में लाने के उपायों का चिन्तवन करना भी अपायविचय है। अथवा मिथ्यादर्शन से आकुलित चित्त वाले प्रवादियों के द्वारा प्रचारित कुमार्ग से हटकर जगत के जीव सन्मार्ग में कैसे लगें? और अनायतन सेवा से कैसे विरक्त हों? धर्म के नाम पर पनप रही पापकारी प्रवृत्तियों से कैसे निवृत्त हों, सुपथगामी कैसे बनें ? इसप्रकार के उपायों का चिन्तवन करना भी अपायविचय धर्मध्यान है। ३. विपाकविचय - स्वत: या परकृत आपतित संकटकाल में उत्पन्न हुई आकुलता से बचने के लिए उस संकट को अपने ही कर्मोदय का फल मानकर साम्यभाव रखना विपाकविचय है। ४. संस्थानविचय - लोक के स्वरूप का विचार करना । यह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद से चार तरह से किया जा सकता है, जिनका स्वरूप इसप्रकार है - | (१) पिण्डस्थ ध्यान - इसका जिनागम में भी उल्लेख है कि - 'निज आत्मा का चिन्तवन पिण्डस्थ ध्यान है। केवली तुल्य आत्मस्वरूप का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है। धर्मध्यान के इस प्रथम भेद में धर्मीजीव अनेकप्रकार की धारणाओं द्वारा अपने उपयोग को एकाग्र करने का प्रयत्न करता है। ___ 'अपनी नाभि में, हाथ में, मस्तक में या हृदय में कमल की कल्पना करके उसमें स्थित सूर्य तेजवत् | स्फुरायमान अर्हन्त के रूप का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है।' | १. परमात्मप्रकाश टीका १/६/६, भावपाहुड़ टीका ८६/२३६ २. ज्ञानार्णव ३६/२८, ३२, वसुनन्दि श्रावकाचार ४५९ ३. ज्ञानसार १९-२१ 4BF FEBRFP VE १२
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy