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________________ १२१ ला अब अ का स्वभाव से ही तेजस्वी हो, किन्तु आपके तपरूप तेज से आप और भी अधिक दैदीप्यमान हो गये हो। " इसप्रकार नाना तरह से इन्द्रों द्वारा हजार नेत्रों से दर्शन एवं स्तुति के उपरान्त देवों ने भी मुनिनाथ की पूजा - स्तुति की । हे मुनिवर ! अपकी यह पारमेश्वरी दीक्षा गंगा नदी के समान तीनों लोकों का सन्ताप दूर करनेवाली है। हे यतीन्द्र ! आप चंचल लक्ष्मी को त्यागकर एवं स्नेह रूप बन्धन को तोड़कर, धन की धूल | उड़ाकर मुक्तिपथगामी बन गये हो। हे स्वामिन्! आप राज्यलक्ष्मी से विरक्त हो गये और तपरूप लक्ष्मी में अनुरक्त हो गये हो । पराधीन सुख छोड़ा और स्वाधीन सुख अपना लिया । इत्यादि प्रकार से देवों द्वारा एवं । T चक्रवर्ती भरत द्वारा पूजा-स्तुति करके मुनिवर के तप-त्याग और अतीन्द्रिय आनन्द की प्रशंसा की । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक, केशलुंच, भूमिशयन, नग्नता, अदन्तधोवन, अस्नान दिन में एक बार खड़े-खड़े अल्प आहार लेना और एक करवट से रात्रि के पिछले प्रहर में श्वान निद्रा लेना, वे इन २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करते थे, पैदल ही चलते थे। छह माह तक तो निरन्तर ध्यानस्थ रहने के कारण उन्होंने आहार ग्रहण ही नहीं किया था और सात माह नौ दिन तक उन्हें आहार की विधि प्राप्त नहीं हुई थी; फिर भी उनके शरीर में किंचित् भी निर्बलता नहीं थी। पुण्योदय से मुनिराज के ऐसे और भी अनेक अतिशय थे । यह भी एक अतिशय ही था कि जंगल के जानवर भी परस्पर का बैर-विरोध भूल गये थे। शेर-गाय एकसाथ एक घाट पर ही पानी पीते । सांप-नेवला निर्भय होकर एकसाथ बैठे रहते । मुनिराज ऋषभदेव सामायिक चारित्र में निरतिचार प्रवर्तते थे। उनके चारित्र में कभी भी दोष नहीं लगता था अत: उन्हें प्रतिक्रमण की और छेदोपस्थापना की आवश्यकता ही नहीं थी । दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान हो गया। चार ज्ञान के धारी मुनि ऋषभदेव ने १ हजार वर्ष तक तप किया । धन्य हैं वे मुनिवर और धन्य हैं उन्हें आहारदान देकर दानतीर्थ के प्रवर्तक राजा श्रेयांस के मानवजीवन को । 不可轩aa和研ㄞ司 ष भ व का दी क्षा क ल्या ण क सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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