SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ FEE | थे। उनकी फलदान शक्ति क्षीण हो गई थी। प्रजा घबराकर राजा नाभिराज के पास पहुँची । नाभिराज ने | उन्हें युवराज ऋषभदेव के पास भेजा। प्रजा ने युवराज के समीप अपनी समस्याएँ रखीं। युवराज ऋषभ ने प्रजा को आश्वस्त किया और उन्होंने समस्याओं का समाधान करते हुए बताया- काल के प्रभाव से अब भोगभूमि का समय समाप्त हो रहा है और कर्मभूमि प्रारंभ हो रही है। अत: अब यहाँ तुम्हें || पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र की भांति ही असि-मसि-कृषि, वाणिज्य, शिल्प तथा सेवा - ये छह कर्म सीखने होंगे और भिन्न-भिन्न परिवार बसाने के लिए गृहों, ग्रामों और नगर बसाने की व्यवस्था करनी होगी। इस कार्य को सम्पन्न कराने के लिए युवराज ने देवों और इन्द्रों को स्मरण किया। स्मरण करने मात्र से इन्द्र आ गया, देवों और इन्द्रों के द्वारा सर्वप्रथम अयोध्या नगरी के मध्य में मंगलस्वरूप जिनमंदिर का निर्माण कराया गया फिर प्रजा का राहत कार्य यथायोग्य तरीकों से प्रारंभ किया। जिसमें, सुकौशल, अवन्तिका, मालव, वत्स, पांचाल, कासी, कलिंग, अंग, बंग, कच्छ, कश्मीर, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, विदर्भ, आन्ध्र, कर्णाटक आदि अनेक देश-नगर बसाये । इन्द्र द्वारा पुर बसाये जाने से ही उसका एक नाम पुरन्दर भी है। युवराज ऋषभदेव ने प्रजाजनों को असि (शस्त्र), मसि (लेखनी), कृषि, व्यापार विद्या और शिल्प - इन छह कार्यों द्वारा आजीविका का उपदेश दिया। ऋषभदेव अभी सरागी थे, गृहस्थ थे, वीतरागी नहीं हुए थे। अत: ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि भगवान ने खेती और शस्त्र चलाने जैसे हिंसोत्पादकज्ञान का उपदेश क्यों दिया ? वे अभी गृहस्थ थे और गृहस्थ आरंभी और विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं होता है। आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा को त्यागने योग्य मानते हुए भी अभी उनका त्याग संभव नहीं था। आरंभ और उद्योग में हिंसा होती अवश्य है; पर उसमें उद्देश्य हिंसा करना नहीं, बल्कि प्रजा का संरक्षण, पालनपोषण और आजीविका देना होता है और उससमय गृहस्थ की भूमिका होने से वे उसके त्यागी हो भी नहीं सकते थे। तभी तो कहा है कि मुनि हुए बिना मोक्ष नहीं होता। संयम तो तीर्थंकरों को भी धारण करना ही स्था होता है। कहा भी है -जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कीच में। सर्ग इक घरी मत विसरौ करो यह आयु जम मुख बीच में।। FERFvo Foo
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy