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________________ OFERE ऋषभदेव ने कहा - "आज्ञा दीजिए तात! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करने || | को तत्पर हूँ।" ___ महाराजा नाभिराज बोले - "बेटा हमें तुमसे यही अपेक्षा और आशा है; पर बात जरा गंभीर है। चलो तुम्हारे कक्ष में चलकर बैठते हैं, वहाँ शान्ति से बात करेंगे।" राजकुमार ऋषभदेव के कक्ष में बैठकर महाराजा नाभिराज लम्बी भूमिका बांधते हुए समझाने लगे - | "बेटा! अब तुम युवा हो गये हो, यद्यपि हम जानते हैं कि तुम्हें इस सांसारिक सुखाभास में किंचित् भी रुचि नहीं है; परन्तु तुम्हें अपनी माता की मनोकामना तो पूर्ण करनी ही होगी। यह सच है कि आत्मधर्म ही सर्वोपरि है अत: तुम आत्मलीन होना चाहते हो; पर यह काम गृहस्थ धर्म में रहकर भी तो हो सकता है। हमने तुम्हारे योग्य अनेक कन्यायें देख रखी हैं, बस तुम्हारे हाँ करने की देर है।" ऋषभदेव ने सहज ही स्वीकृति देते हुए कहा - "ठीक है, जैसी आपकी इच्छा।" इतनी सहजता से ऋषभदेव की "हाँ" सुनकर नाभिराज और मरुदेवी चकित रह गये। माँ मरुदेवी कहने लगी कि हम तो सोचते थे कि “उसे यह स्वीकृत कराना सहज कार्य नहीं है, पर यहाँ तो कुछ करना ही नहीं पड़ा। सच है महापुरुषों की वृत्ति और प्रवृत्ति अत्यन्त सरल होती है, तीर्थंकर का जीव है न! जब जो मन में होता है, तब वही वचनों में व्यक्त कर देता है।" यही तो सरलता है महापुरुषों की। उनकी तत्त्वरुचि और वैराग्य भी गृहस्थ की भूमिकानुसार यथार्थ ही है। गृहस्थधर्म में ऐसा ही होता है। अन्तरंग तत्त्वरुचि भी रहती है, उचित वैराग्य भी रहता है और भूमिकानुसार राग भी रहता ही है। एक ओर तो कुमार ऋषभदेव के यौवनागम में ही ऐसी प्रवृत्ति कि माता-पिता को भी भ्रम हो गया कि यह शादी ही नहीं करेगा और दूसरी ओर ८३ लाख पूर्व की वृद्धावस्था में नीलांजना का नृत्य देखना, क्या इसमें कुछ विरोधाभास नहीं लगता? अज्ञानियों को लगता होगा; पर वस्तुत: विरोध नहीं है। वह तो माता
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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