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________________ १८८ गाथा-३७ १८९ प्रवचनसार अनुशीलन तब प्रतच्छवत होत सब यामें नाहिं विवाद ।।१७०।। अथवा भावी वस्तु जे वेदविदित सब ठौर । तिनहिं विचारत ज्ञान तहँ होत तदाकृति दौर ।।१७१।। बाहू बलि भरतादि जे ऽतीत पुरुष परधान । अथवा श्रेणिक आदि जे होनहार भगवान ।।१७२।। तिनको चित्र विलोकतै ऐसो उपजत ज्ञान । जैसे ज्ञेय प्रतच्छ को जानत ज्ञान महान ।।१७३।। छदास्थनि के ज्ञान की जहँ ऐसी गति होय । जानहिं भूत भविष्य को वर्तमानवत सोय ।।१७४।। तब जिनके आवरन कौ भयौ सरवथा नाश । प्रगट्यो ज्ञान अनंतगत सहज शुद्ध परकाश ।।१७५।। तिनके भूत भविष्य जे परजै भेद अनंत । छहों दरब के लखन में शंका कहा रहंत ।।१७६।। यह सुभाव है ज्ञान को जब प्रनवत निजरूप । तब जानत जुगपत जगत त्रिविध विकालिक भूप ।।१७७।। ऐसे परम प्रकाशमहँ शुद्ध बुद्ध जिमि अर्क । तास प्रगट जानन विर्षे कैसे उपजै तर्क ।।१७८।। अपने वस्तुस्वभाव में राजै वस्तु समस्त । निज सभाव में तर्क नहिं यह मत सकल प्रशस्त ।।१७९।। शंकाकार शंका करता है कि ज्ञान वर्तमान पर्यायों को जानता है; इसमें तो शंका नहीं होती; क्योंकि यह तो हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं; किन्तु हे मित्र ! भूत और भविष्य की पर्यायें तो अभी हैं ही नहीं; उन्हें कैसे देखा जाय ? इसलिए चित्त में भ्रम उत्पन्न होता है। उत्तर में समाधानकर्ता कहते हैं कि जब हम बचपन की बातें याद करते हैं तो सभी घटनायें प्रत्यक्ष के समान ही भासित होने लगती हैं, इसमें तो कोई विवाद नहीं है । अथवा शास्त्रों में बताई गई भविष्य की घटनाओं के बारे में विचार करते हैं तो वे आकृति सहित ज्ञान में झलक जाती हैं। बाहुबली-भरत आदि जो प्रधान पुरुष भूतकाल में हुए हैं अथवा राजा श्रेणिक जो भविष्य में भगवान होने वाले हैं; इन सबके चित्र देखकर इसप्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है कि जैसे हम ज्ञेयों को प्रत्यक्ष देखते हैं। छद्मस्थों के ज्ञान की भी जब ऐसी स्थिति है कि वे भूत और भविष्य को वर्तमान के समान ही जान लेते हैं; तब जिनके सम्पूर्ण आवरण का सर्वथा नाश हो गया है, अनंत ज्ञान प्रगट हो गया है, सहज ही शुद्ध प्रकाश हो गया है; वे छहों द्रव्यों की भूत और भविष्य की अनंत पर्यायों को देखेंजानें तो इसमें शंका के लिए कहाँ स्थान है ? ___ ज्ञान का यह स्वभाव जब निजस्वभाव में परिणमित होता है; तब भगवान जगत के सभी द्रव्यों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एकसाथ जान लेते हैं। सूर्य के समान शुद्ध-बुद्ध परमप्रकाश में सभी वस्तुएँ प्रगट जान ली जाती हैं, इसमें तर्क-वितर्क के लिए क्या स्थान है ? __सभी वस्तुएँ अपने वस्तुस्वभाव में शोभायमान हैं, स्वभाव में कोई तर्क नहीं चलता - यह प्रशस्तमत सर्वसम्मत मत है। उक्त गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "द्रव्य क्रमपूर्वक तपती (प्रगट होनेवाली) संपदावाला है। उसमें एक समय में एक पर्याय होती है, जो क्रमपूर्वक तपती है - अपने समय में प्रतापवन्त वर्तती है। वह पर्याय अपना प्रभुत्व रखती है। उससमय की पर्यायें स्वयं से स्वरूप की संपदा है, लक्ष्मी है। इसमें विकारी और अविकारी दोनों पर्यायें आ जाती हैं। पर्याय क्रमपूर्वक होती है, वह उसकी शोभा हैवह उसकी सम्पदा है। विकार एक के बाद एक होता है । इसतरह ज्ञेयों में क्रमबद्ध परिणमन होता है, यह ज्ञेय का स्वभाव है। विकार अथवा अविकार सभी क्रमबद्ध हैं। अनन्तकाल की भूत पर्यायें और भविष्य की पर्यायें - वे सभी अविद्यमान पर्यायें विद्यमानवत् केवलज्ञान में भासित होती हैं। उन सभी १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२८९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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