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________________ १८४ प्रवचनसार अनुशीलन कहा । यदि पर्याय में से पर्याय हो तो विरोध आयेगा। यहाँ तो यह कहना है कि ज्ञानपर्याय में से ज्ञानपर्याय होती है - ऐसी उत्पत्ति क्रिया नहीं हो सकती; किन्तु ज्ञानपर्याय अपने को जाने - इसमें विरोध नहीं है। ज्ञानपर्याय के परिणमन में से परिणमन नहीं आता – यह बताया है, किन्तु परिणमन के समय नहीं जाने तो वह स्वयं अंधी हुई। अपनी ज्ञानपर्याय स्वयं अपने को जानती है। समय-समय की श्रुतज्ञान पर्याय आत्मा के अवलम्बन से प्रगट हुई है; वह स्व-परप्रकाशक है।" इस गाथा की टीका में एक बात तो यह बताई गई है कि सभी द्रव्यों की त्रिकालवर्ती पर्यायें ज्ञेय हैं अर्थात् जानी जा सकती हैं। इस बात पर आगामी गाथाओं में विस्तार से प्रकाश डाला जायेगा। दूसरे ज्ञान अर्थात् आत्मा स्व-परप्रकाशक है। यदि आत्मा स्वपरप्रकाशक नहीं होता तो फिर ज्ञेय के स्व और पर - ऐसे भेद नहीं किये जा सकते थे। तात्पर्य यह है कि परपदार्थ तो ज्ञेय हैं ही, उन्हें जाननेवाला अपना आत्मा भी ज्ञेय है। __ अपने आत्मा को छोड़कर अन्य सभी परपदार्थ अपने लिए मात्र ज्ञेय ही हैं; किन्तु अपना आत्मा स्वयं ज्ञायक है और ज्ञेय भी है। इसतरह 'स्व' में अर्थात् अपने आत्मा में ज्ञेय और ज्ञायक - ये दोनों विशेषताएँ हैं और पर अपने लिए मात्र ज्ञेय ही हैं। यही कारण है कि स्व और पर - ज्ञेय के ऐसे दो भेद किए गए हैं। तीसरी बात यह कही है कि भले ही ज्ञानपर्याय स्वयं से उत्पन्न न हाती व्होनिसरवापर के साथ-साथ स्वयं को जानती अवश्य है; क्योंकि वह स्व-परप्रकाशक है। रतन त्रय के बिना होता रहा है यह परिणमन । तुम रतन त्रय धारण करो बस यही है जिनवर कथन ।।३०।। - अष्टपाहुड़ पद्यानुवाद, पृष्ठ-५०, छन्द-३० प्रवचनसार गाथा-३७ विगत गाथा में यह कहा गया है कि सभी द्रव्यों की भूतकाल में हो गईं; वर्तमान में हो रहीं और भविष्य में होनेवाली पर्यायें ज्ञेय हैं । उसी बात को आगे बढ़ाते हुए इस गाथा में कहते हैं कि सभी द्रव्यों की अतीत और अनागत पर्यायें भी वर्तमान पर्याय के समान ही ज्ञान में विद्यमान हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं । वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।।३७।। (हरिगीत) असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब । सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ।।३७।। उन जीवादि द्रव्यजातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भांति विशिष्टतापूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जीवादि समस्त द्रव्यजातियों की पर्यायों की उत्पत्ति मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से, उनकी क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूपसंपदा वाली विद्यमानता और अविद्यमानता को प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं; वे सब तात्कालिक पर्यायों की भांति अत्यन्त मिश्रित होने पर भी सब पर्यायों के विशिष्ट लक्षण ज्ञात हों; इसप्रकार एक क्षण में ही ज्ञानमंदिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं। यह अयुक्त नहीं है; क्योंकि उसका दृष्ट के साथ अविरोध है । जगत में दिखाई देता है कि छद्मस्थों के भी जिसप्रकार वर्तमान वस्तु का चितवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है; उसीप्रकार भूत और भविष्यत वस्तु चिन्तवन करते हुए भी ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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