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________________ गाथा-३५ १७८ प्रवचनसार अनुशीलन पूर्व की गाथा में श्रुत-उपाधिकृत भेद निकाल दिया था। अब कहते हैं कि ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है ? ज्ञानपर्याय पर का ग्रहण-त्याग करे - यह तो मिथ्याभाव है। इसीतरह ज्ञान पर्याय शास्त्र से अथवा पर से प्रगट होती है - यह भी मिथ्याभाव है। ___ ज्ञानपर्याय और ज्ञाता का विभाग करना यह क्लिष्ट कल्पना है; उससे तेरी आत्मा को क्या लाभ है ? ज्ञाता और ज्ञानपर्याय - इन दो को लक्ष्य में लेने से विकल्प होता है और विकल्प में लाभ मानने से मिथ्यात्व होता है।" - इस गाथा और इसकी टीकाओं में अभिन्न कर्ता और करण की ही बात है। सोलहवीं गाथा की टीका में अभिन्न षट्कारकों की चर्चा विस्तार से की जा चुकी है। वस्तुत: बात यह है कि निश्चय कर्ता और करण अभिन्न होते हैं और व्यवहार से कर्ता और करण भिन्न-भिन्न होते हैं। अग्नि उष्णता से ईंधन को जलाती है और हम हांसिये से लकड़ी को काटते हैं। इन वाक्यों में वस्तुस्थिति एकदम जुदी-जुदी है, क्योंकि जिसप्रकार हमसे हांसिया जुदा है, उसप्रकार अग्नि उष्णता से जुदी नहीं है। आत्मा और ज्ञान की स्थिति हांसिया और हम जैसी नहीं है, अपितु अग्नि और उष्णता जैसी है। ___ हम हांसिया से काटते हैं - यह तो बहुत कुछ ठीक लगता है, पर अग्नि उष्णता से जलाती है - यह कुछ अटपटा लगता है। अग्नि जलाती हैं' क्या इतना ही पर्याप्त नहीं है। यदि है तो फिर अग्नि उष्णता से जलाती - इस क्लिष्ट कल्पना से क्या लाभ है ? इसीप्रकार आत्मा जानता है' इतना ही पर्याप्त है। आत्मा ज्ञान से जानता है - इस क्लिष्ट कल्पना से क्या लाभ है? टीकाओं में इसी बात को तर्क व युक्तियों से समझाया गया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२६३ १७९ भारतीय दर्शनों में एक दर्शन ऐसा है, जो यह मानता है कि आत्मा जुदा है और ज्ञान जुदा है। आत्मा और ज्ञान - ये दोनों समवाय नामक संबंध के कारण जुड़े हैं। उनका कहना है कि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप नहीं है, अपितु ज्ञान के संयोग से ज्ञानी है। उक्त मत से असहमति व्यक्त करते हुए यहाँ कहा गया है कि आत्मा और ज्ञान यद्यपि कथंचित् भिन्न-भिन्न हैं; तथापि वे सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं। आत्मा और ज्ञान में गुण-गुणी का भेद होने पर भी उनमें प्रदेशभेद नहीं है; दोनों के प्रदेश एक ही हैं। उनमें परस्पर अतद्भाव है, अभाव नहीं है, अत्यन्ताभाव नहीं है। जिनके प्रदेश भिन्न-भिन्न होते हैं, उनमें परस्पर अभाव होता है, अत्यन्ताभाव होता है; पर जिनके प्रदेश एक होते हैं, उनमें अतद्भाव होता है; अभाव नहीं, अत्यन्ताभाव भी नहीं। वस्तुत: बात यह है कि आत्मा और ज्ञान अन्य-अन्य तो हैं, पृथक्पृथक् नहीं। उनमें परस्पर अन्यत्व है, पर पृथक्त्व नहीं। ___अन्यत्व और पृथक्त्व की चर्चा आगे ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन महाधिकार में विस्तार से होगी ही। अत: यहाँ इतना पर्याप्त है। टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से इस बात का उल्लेख है कि आत्मा और ज्ञान को सर्वथा भिन्न मानने पर दोनों ही अचेतन हो जायेंगे और दो अचेतन मिलकर भी जानने का काम नहीं कर सकते। दूसरी बात यह है कि जब आत्मा और ज्ञान सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं तो फिर ज्ञान आत्मा से ही क्यों जुड़े, अन्य अजीव पदार्थों से क्यों नहीं ? वह राख आदि जड़-पदार्थों से भी जुड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो राख आदि पदार्थ भी जानने-देखने लग जावेंगे; पर ऐसा होता नहीं है। अत: आत्मा कर्ता और ज्ञान करण - ऐसा विभाग करने से भी क्या लाभ है ? 'आत्मा ज्ञान से जानता है' के स्थान पर 'ज्ञानस्वभावी आत्मा स्वयं से जानता है' यही ठीक है अथवा आत्मा जानता है - इतना ही पर्याप्त है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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