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________________ १६६ प्रवचनसार अनुशीलन मुनि की बात है, किन्तु यहाँ सम्यग्दृष्टि भी ले लेना। अविशेष अर्थात् अन्तर नहीं है - यह बताकर विशेष जानने की इच्छा के क्षोभ को नष्ट करते हैं। ज्ञानस्वभाव का भान होने पर समकिती और केवली में अंतर नहीं होता । अल्प अंतर होता है, उसको गौण किया है। __ आत्मा चैतन्य ज्ञानज्योति है, उसका भान होकर जो श्रुतज्ञान प्रगट हुआ, उसके द्वारा वे आत्मा को अनुभवते हैं। केवली भगवान केवलज्ञान द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं। इसतरह केवली और श्रुतकेवलियों में समानता है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन है - ऐसे स्वभाव को श्रुतज्ञान द्वारा जाने उनको श्रुतकेवली कहते हैं। चैतन्यस्वभाव से भरा हुआ आत्मा जाना है; इसलिए इसमें सभी कुछ आ गया है; अत: बहुत जानने की इच्छा को छोड़ दे। ज्ञान कम है, उसे बढ़ाऊँ - ऐसी अस्थिरता की इच्छा छोड़कर ज्ञानस्वरूप में स्थिर रहे - यही योग्यता है और यही केवलज्ञान प्राप्ति का उपाय है। इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है।" ___ यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि श्रुतज्ञान से आत्मा को जाननेवाले, आत्मा का अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली हैं तो फिर तो प्रत्येक आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि को श्रुतकेवली होना चाहिए; जबकि शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि भरतक्षेत्र में भद्रबाहु के बाद कोई भी श्रुतकेवली हुआ ही नहीं है। समयसार की नौंवी-दसवीं गाथा के प्रकरण में भी इसप्रकार प्रश्न उपस्थित हुआ है। अत: समयसार के अनुशीलन के समय इस प्रकरण पर १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२४२ २. वही, पृष्ठ-२४६-२४७ ३.वही, पृष्ठ-२४८ गाथा-३३ १६७ विस्तार से चर्चा की गई थी; जिसका महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है - "अरे भाई ! निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहारश्रुतकेवली कोई अलग-अलग व्यक्ति थोड़े ही होते हैं, श्रुतकेवली तो एक ही होते हैं और वे द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी ही होते हैं। आत्मानुभवी होने के कारण उन्हें ही निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और द्वादशांग के पाठी होने के कारण उन्हें ही व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं। इसी बात को इसप्रकार भी व्यक्त करते हैं कि श्रुतकेवली निश्चय से निज शुद्धात्मा को ही जानते हैं, पर को नहीं, द्वादशांगरूप श्रुत को भी नहीं; तथा वे ही श्रुतकेवली व्यवहार से द्वादशांगरूप श्रुत को जानते हैं, आत्मा को नहीं। ध्यान रहे, ये दोनों ही नय एक साथ एक ही समय में एक ही व्यक्ति पर घटित होते हैं, अन्य-अन्य व्यक्तियों पर नहीं, अन्य-अन्य समय पर भी नहीं। जो व्यक्ति जिससमय आत्मा को जानने के कारण निश्चयश्रुतकेवली हैं; वही व्यक्ति उसीसमय द्वादशांगरूप श्रुत का विशेषज्ञ होने के कारण व्यवहार श्रुतकेवली भी है। इसीप्रकार जो व्यक्ति जिससमय द्वादशांग का पाठी होने से व्यवहारश्रुतकेवली है, वही व्यक्ति उसीसमय आत्मज्ञानी होने से निश्चयश्रुतकेवली भी है। उनमें न व्यक्तिभेद है और न समयभेद ही। इसीप्रकार के प्रयोग केवली भगवान के बारे में भी उपलब्ध होते हैं। नियमसार में लिखा है - 'जाणदिपस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदिपस्सदिणियमेण अप्पाणं ।।१५९।। अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जड़ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होई ।।१६६।। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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