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________________ प्रवचनसार गाथा - ३२ विगत गाथाओं में सबको देखने-जानने के कारण आत्मा को सर्वगत सिद्ध किया गया है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि सबको देखतेजानते हुए भी यह आत्मा बाह्य ज्ञेय पदार्थों से भिन्न ही है । गाथा मूलतः इसप्रकार है - हदिव व मुंचदिण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ।। ३२ ।। ( हरिगीत ) केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें । चहुं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।। ३२ ।। केवली भगवान पर को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं, पररूप परिणमित नहीं होते; परन्तु निरवशेषरूप से सम्पूर्ण आत्मा को या सभी ज्ञेय पदार्थों को सर्व ओर से देखते - जानते हैं । उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा परद्रव्यरूप परिणमित होने का अभाव होने से यह आत्मा स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूप से परिणमित होकर, निष्कंप ज्योतिवाले मणि के समान जिसके सर्वात्मप्रदेशों से दर्शनज्ञान-शक्ति स्फुरित है और जो परिपूर्ण आत्मा को आत्मा से सम्पूर्णतः अनुभव करता है अथवा एक साथ ही सर्वपदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने के कारण ज्ञप्तिपरिवर्तन का अभाव होने से ग्रहण -त्याग क्रिया से विराम को प्राप्त पहले से ही समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित होने से पररूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्वप्रकार से सर्व विश्व को मात्र देखता जानता है। इसप्रकार दोनों रूप में आत्मा का पर-पदार्थों से अत्यन्त भिन्नत्व ही है। " १५९ उक्त टीका में गाथा की दूसरी पंक्ति के दो अर्थ किये गये हैं । प्रथम तो यह कि यह केवलज्ञानरूप से परिणमित आत्मा परिपूर्ण आत्मा का • आत्मा से सम्पूर्णत: अनुभव करता है और दूसरा यह कि यह केवलज्ञानरूप परिणमित आत्मा सर्वप्रकार से सम्पूर्ण विश्व (लोकालोक) को जानता देखता है। गाथा-३२ उक्त दोनों ही स्थितियों में यह भगवान आत्मा न तो परद्रव्यों को ग्रहण करता है, न उनका त्याग करता है और न उनरूप परिणमित ही होता है; इसलिए उनसे भिन्न ही है । प्रथम तो भगवान आत्मा में एक त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति है, जिसके कारण यह आत्मा परद्रव्यों के ग्रहण-त्याग से शून्य है; दूसरे यह केवलज्ञान लोक-अलोक के सभी द्रव्य, उनके गुण और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक समय में एकसाथ ही जान लेता है, इसकारण केवलज्ञान में ज्ञप्तिपरिवर्तन नहीं होता । ज्ञप्तिपरिवर्तन के अभाव में नया जाननेरूप ग्रहण और पुराने को जानना बन्द करनेरूप त्याग भी नहीं होता । इसतरह केवलज्ञानी आत्मा परद्रव्यों के ग्रहण-त्याग से शून्य हैं । ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञेयोंरूप में परिणमित नहीं होने से भी पररूप परिणमित नहीं होते। इसप्रकार पर के ग्रहण - त्याग से शून्य और पररूप परिणमन से रहित केवली भगवान अपने आत्मा को और अन्य सभी पदार्थों को सम्पूर्णत: देखते- जानते हैं; फिर भी वे सभी पर-पदार्थों से, ज्ञेयपदार्थों से भिन्न ही है। यही आशय है इस गाथा और टीका का। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का अर्थ करते हुए दो प्रकार से व्याख्यान करते हैं। प्रथम व्याख्यान में तो इतना ही कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान व्यवहारनय से सम्पूर्ण ज्ञेयों को देखते - जानते हुए भी उन्हें ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं और उनरूप परिणमित भी नहीं होते। इसकारण वे परद्रव्यों से भिन्न ही है । दूसरे व्याख्यान में ग्रहण -त्याग की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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