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________________ प्रवचनसार गाथा-३०-३१ विगत २८ व २९वीं गाथाओं में यह कहा गया है कि यद्यपि निश्चयनय से आत्मा अपने असंख्यात प्रदेशों में ही रहता है; तथापि वह व्यवहारनय से सर्वगत भी है। इसीप्रकार यह भी कहा गया है कि यद्यपि निश्चयनय से ज्ञेय ज्ञेयगत ही हैं; तथापि व्यवहारनय से वे ज्ञानगत भी हैं; आत्मगत भी हैं। अब इन ३० व ३१वीं गाथाओं में उसी बात को सयुक्ति सिद्ध करते हैं - गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमढेसु ।।३०।। जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा ।।३१।। (हरिगीत) ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से । त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ।।३०।। वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत । ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ।।३१।। जिसप्रकार इस जगत में दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से उस दूध में व्याप्त होकर वर्तता है; उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयपदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है। ___ यदि वे पदार्थ ज्ञान में न हों तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता और यदि ज्ञान सर्वगत है तो पदार्थ ज्ञानगत कैसे नहीं हैं ? गाथा-३०-३१ १५३ इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से दूध में व्याप्त दिखाई देता है; उसीप्रकार संवेदन अर्थात् ज्ञान भी आत्मा से अभिन्न होने से कर्ता अंश से आत्मा को प्राप्त होता हुआ ज्ञानरूप करण अंश के द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है; इसलिए कार्य में कारण का (ज्ञेयाकारों में पदार्थों का) उपचार करके यह कहने में कोई विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है। यदि समस्त स्व ज्ञेयाकारों के समर्पण द्वारा ज्ञान में अवतरित होते हुए समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हों तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जा सकता। यदि वह ज्ञान सर्वगत माना जाता है तो फिर साक्षात् ज्ञानदर्पण में अवतरित बिम्ब की भांति अपने-अपने ज्ञेयाकारों के कारण होने से और परम्परा से प्रतिबिंब के समान ज्ञेयाकारों के कारण होने से पदार्थ ज्ञानस्थित निश्चित कैसे नहीं होते अर्थात् पदार्थ ज्ञानस्थित हैं ही।" इन गाथाओं का भाव आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में भी इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं का भावानुवाद दो छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण) जैसे इस लोक में महान इन्द्रनील रत्न, दूधमाहिं डारै तब ऐसो विरतंत है। अपनी आभासतें सफेदी भेद दूध की सो, नील वर्न दूध को करत दरसंत है ।। ताही भांति केवली के ज्ञान की शकति वृन्द, ज्ञेयन को ज्ञानाकार करत लसंत है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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