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________________ १३८ प्रवचनसार अनुशीलन ही ज्ञान और ज्ञेयों के विषय में भी समझना । ज्ञान पर को जानता तो है; किन्तु पर में नहीं जाता और ज्ञान ज्ञेयाकाररूप होते हुए भी ज्ञेय ज्ञान में नहीं आते। आत्मा पर को जाने तो भी आत्मा पर में नहीं जाता और आत्मा ज्ञेयाकाररूप होता है, तब भी ज्ञेय आत्मा में नहीं आते - ऐसी स्वतंत्रता सिद्ध की है।” __वस्तुत: बात यह है कि ज्ञान आत्मा के असंख्य प्रदेशों के बाहर नहीं जाता और आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों के साथ संसारावस्था में प्राप्त देह के आकार में देह में ही रहता है और सिद्धावस्था में किंचित्न्यून अंतिमदेह के आकार में रहता है। ज्ञेय तो अलोकाकाश सहित सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं; उक्त सभी ज्ञेयों को सर्वज्ञ भगवान जानते हैं । इसप्रकार सर्वज्ञ भगवान या सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान देहप्रमाण सीमा में रहकर भी सारे लोकालोक के ज्ञेयों को सहजभाव से जानता है और सभी ज्ञेय उनके ज्ञान में सहजभाव से झलकते हैं, जाने जाते हैं। ___ आत्मवस्तु का, उसके ज्ञानस्वभाव का, उसकी ज्ञानपर्याय का और सम्पूर्ण ज्ञेयों का ऐसा ही सहज स्वभाव है कि आत्मा, ज्ञान या उसकी ज्ञानपर्याय अपने में सीमित रहकर भी दूरस्थ सभी ज्ञेयों को जान लेती है और दूरस्थ ज्ञेय भी स्वस्थान को छोड़े बिना ही ज्ञान के विषय बन जाते हैं। इसी स्थिति को नयों की भाषा में इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि निश्चयनय से आत्मा व ज्ञान आत्मगत है और व्यवहारनय से सर्वगत है। इसीप्रकार निश्चयनय से सभी ज्ञेय स्वगत हैं और व्यवहार से आत्मगत हैं। इसप्रकार भगवान आत्मा और लोकालोक में सहज ही ज्ञाता-ज्ञेयरूप निमित्त-नैमित्तिक संबंध है और निमित्त-नैमित्तिक संबंधी जो भी कथन होता है, वह सभी असद्भूतव्यवहारनय के विषय में आता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२०१ प्रवचनसार गाथा-२७ विगत गाथा में यह कहा गया था कि जिनवर अर्थात् आत्मा सर्वगत है और सर्वपदार्थ आत्मगत हैं; क्योंकि सभी पदार्थ आत्मा के द्वारा जाने जाते हैं। अब इस २७ वीं गाथा में आत्मा और ज्ञान में कथंचित् एकत्व है और कथंचित् अन्यत्व है; यह सिद्ध करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदिणाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।२७।। (हरिगीत) रे आतमा के बिना जग में ज्ञान हो सकता नहीं। है ज्ञान आतम किन्तु आतम ज्ञान भी है अन्य भी ।।२७।। ज्ञान आत्मा है - ऐसा जिनवरदेव का मत है। आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में ज्ञान नहीं होता; इसलिए ज्ञान आत्मा है। ज्ञान तो आत्मा है, परन्तु आत्मा मात्र ज्ञान नहीं है; अपितु ज्ञानगुण द्वारा ज्ञान है और सुखादि अन्य गुणों द्वारा अन्य भी है। ___ तात्पर्य यह है कि आत्मा ज्ञानरूप तो है; किन्तु आत्मा ज्ञानरूप ही नहीं है, सुखरूप भी है, श्रद्धारूप भी है, दर्शनरूप भी है, चारित्ररूप भी है; अनन्त गुणोंरूप है। इसप्रकार एक अपेक्षा से ज्ञान और आत्मा एक ही हैं और दूसरी अपेक्षा से ज्ञान आत्मा का एक गुण है और आत्मा ज्ञान जैसे अन्य सुखादि अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड है। इसप्रकार आत्मा और ज्ञान अन्य-अन्य भी हैं और अनन्य भी हैं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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