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________________ प्रवचनसार अनुशीलन १२० उक्त शंका के समाधान में सहज ही हुआ है। यह तो सहज संयोग ही है कि जैनियों के एक सम्प्रदाय में भी इसीप्रकार की धारणा पाई जाती है। इसीकारण ऐसा लगता है कि उक्त चर्चा उक्त सम्प्रदाय के खण्डन में की गई है। एक ओर तो अरंहत भगवान को अनन्तसुखी कहना और दूसरी ओर उन्हीं को देहगत क्षुधा वेदना से सहित बताना तथा उसके उपचार हेतु कवलाहार की कल्पना करना सहज ही गले उतरनेवाली बात नहीं है। अनन्तसुखी होने के साथ-साथ वे अनन्तज्ञान (केवलज्ञानक्षायिकज्ञान - सर्वज्ञता) के धनी भी तो हैं। जब उनके केवलज्ञान में सबकुछ सदा प्रत्यक्ष भासित रहेगा, तब वे निरंतराय आहार कैसे ले सकते हैं ? अरहंत भगवान पूर्ण वीतरागी भी तो हैं। वीतरागी कहते ही उसे हैं, जो अठारह दोषों से रहित होते हैं। अठारह दोषों में क्षुधा (भूख लगना) पहला दोष है और कवलाहार न केवल उक्त दोष का प्रतिफल है; अपितु उसकी सत्ता का सूचक भी है। अतः यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि अनंतज्ञान व अनंतसुख के धनी वीतरागी - सर्वज्ञों के देहगत दुख (भूख) और उसके मेंटने का उपाय कवलाहार किसी भी रूप में संभव नहीं । केवलियों के कवलाहार नहीं होता, नहीं हो सकता; यह मान्यता मात्र जैनियों के किसी सम्प्रदाय विशेष की ही नहीं है; अपितु वस्तु का सहजस्वरूप है और इसका प्रतिपादन भी दार्शनिक खण्डनमण्डन के लिए नहीं, अपितु वस्तुस्वरूप का सहज प्रकाशन है। इसे एक साम्प्रदायिक मान्यता के रूप में देखकर उपेक्षित करना समझदारी नहीं है क्योंकि इसे समझे बिन होसे को सेक्सको भी समझ में नही आयेगा। अनादि से ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा ही है, पर इस "बात की जानकारी न होने से, ज्ञान न होने से ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान होने का कोई लाभ इसे प्राप्त नहीं हो रहा है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ ७७ ज्ञानाधिकार ( गाथा २१ से गाथा ५२ तक ) प्रवचनसार गाथा २१-२२ शुद्धोपयोगाधिकार के अन्त में जिस अनन्तज्ञान और अनन्तसुख की बात की है अथवा अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख की बात की है; उनके संदर्भ में विस्तार से समझने के लिए अब क्रमशः ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार की बात करते हैं। यद्यपि इन अधिकारों का नाम तो ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार ही है; तथापि इनमें ज्ञान और सुख गुणों की चर्चा न होकर अतीन्द्रिय ज्ञान (केवलज्ञान - सर्वज्ञता) और अतीन्द्रिय सुख (अनंतसुख) की चर्चा है। पहले ज्ञान अधिकार आरंभ करते हुए सर्वप्रथम २१वीं और २२वीं इन गाथाओं के माध्यम से यह बताते हैं कि केवली भगवान के ज्ञान में सभी पदार्थ प्रत्यक्षरूप से ज्ञात होते हैं, उनके कुछ भी परोक्ष नहीं है । मूल गाथायें इसप्रकार हैं परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं ।। २१ । । णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ।। २२ ।। ( हरिगीत ) केवली भगवान के सब द्रव्य गुण - पर्याययुत । प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते । । २१ ।। सर्वात्मगुण से सहित हैं अर जो अतीन्द्रिय हो गये । परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के । । २२ ।। ज्ञानरूप से परिणमित हुए केवली भगवान के सर्वद्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष हैं, वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते ।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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