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________________ ११६ प्रवचनसार अनुशीलन पड़ने वाली अग्नि की बात है; वहाँ घनघात सहने वाली अग्नि की बात है और यहाँ घनघात न सहनेवाली अग्नि की बात है। वहाँ कर्म की संगति में पड़नेवाले सभी आत्माओं को विकार होता, सांसारिक सुख-दुःख होते हैं - यह कहा है और यहाँ यह कहा जा रहा है कि जिसप्रकार इन्द्रियों और शरीर के संयोग में होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहनेवालेवीतरागियों को शरीरगत-इन्द्रियगत सुख-दुःख नहीं होते। उक्त छन्द संबंधी उदाहरण में कर्म की बात कही है और यहाँ शरीर की बात करके नोकर्म की बात की है। इसप्रकार इन दोनों कथनों में महान अन्तर है। उदाहरण की स्थूल समानता देखकर ही ऐसा प्रश्न खड़ा होता है। यदि उनमें अन्तर को बारीकी से देखेंगे तो सब बात सहज ही स्पष्ट हो जावेगी। ___आचार्य जयसेन ने इस प्रकरण पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए केवलीभुक्ति अर्थात् केवली कवलाहार का डटकर निषेध किया है; जो मूलत: पठनीय है। कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में १९वीं गाथा का तो सामान्य अर्थ ही करते हैं; पर २०वीं गाथा की चर्चा में केवली कवलाहार का निषेध करते हुए अनेक छन्द लिखते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं। श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय से आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार को पाकर दिगम्बर परम्परा में आये आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने भी इस प्रकरण पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, जिसका संक्षिप्त सार इसप्रकार है - "अब अतीन्द्रियता के कारण ही शुद्ध आत्मा (केवली भगवान के) शारीरिक सुख-दु:ख नहीं है - यह व्यक्त करते हैं। भगवान को क्षुधा, तृषा, रोग, उपसर्गादि हीनता (दोष) माननेवाला केवली के स्वरूप को नहीं जानता। गाथा-१९-२० ११७ प्रश्न - कोई कहे कि केवली भगवान को आहारक कहा गया है; इसलिए हम उन्हें आहारादि ग्रहण करनेवाले माने तो क्या आपत्ति है ? समाधान - केवली भगवान के शरीर के सभी भाग में और असंख्यात आत्मप्रदेशों में नोकर्म वर्गणा के परमाणु तथा द्रव्यकर्म के परमाणु आते हैं, इस अपेक्षा उन्हें आहारक कहा है; किन्तु किसी भी प्रकार से वे कवलाहार ग्रहण करें - ऐसे केवली जिनागम में नहीं कहा है। रोटी खाए वे आहारक और रोटी न खाए वे अनाहारक - ऐसी व्याख्या जिनशास्त्र के हिसाब से सही नहीं है; क्योंकि विग्रहगति में अनाहारक का समय तो एक समय से तीन समय तक है; इसलिए भगवान को कवलाहार की अपेक्षा आहारक कहा ही नहीं है, किन्तु अन्य परमाणु आने की अपेक्षा उन्हें आहारक कहा है। देखो! सर्वार्थसिद्धि टीका अध्याय २, सूत्र ४, पृष्ठ १४, १५ में कहा है कि - ‘लाभान्तराय' कर्म के सम्पूर्ण अभाव से किसी भी प्रकार से कवलाहार की क्रिया नहीं है - ऐसे केवली भगवान होने से जिनको शरीर के आधार का कारण और अन्य मनुष्य में न रहे - ऐसे अत्यंत सूक्ष्म और शुभ पुद्गल के सूक्ष्म अनन्त परमाणु प्रति समय शरीर संबंध को प्राप्त करते हैं । इसलिए सिद्ध होता है कि किसी भी केवली भगवान को कवलाहार कभी भी नहीं हो सकता। केवली भगवान को शरीर संबंधी क्षुधा-तृषा नहीं होती; क्योंकि वे सम्पूर्ण अतीन्द्रियता को प्राप्त किये हुए हैं। मुनिराज आहार लेते हैं तो वे ज्ञान-दर्शन व ध्यान के अर्थ (प्रयोजन से) लेते हैं; इसलिए मुनि के आहार लेने का भाव भी पुण्य है, पापभाव नहीं । मुनि को आहारसंज्ञा हुई और यदि गृद्धता हो जाय तो पाप है; किन्तु ज्ञान-दर्शन के, ध्यान के हेतु (प्रयोजन से) छटवें गुणस्थान के समय आहार लेते हैं; किन्तु जिनके ज्ञान-दर्शन, ध्यान का प्रयोजन ही पूर्ण हो गया है - ऐसे सर्वज्ञ भगवान को आहार नहीं होता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१५५-१५६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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