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________________ ११० प्रवचनसार अनुशीलन ताहि कही परजाय गुरु यह मत प्रबल अछेद ।।८६।। तिन परजायकरि दरब उपजत विनशत मान । ध्रौव्यरूप निजगुणसहित दुहूँ दशा में जान ।।८७।। याही कर सद्भाव तसु यह है सहज स्वभाव । यहाँ तर्क लागै नहीं वृथा न गाल बजाव ।।८८।। प्रत्येक द्रव्य में गुण और पर्याय - ये दो प्रकार की शक्तियाँ कही गई हैं। करोड़ों उपाय करने पर भी इनके बिना वस्तु की सिद्धि नहीं की जा सकती। इनमें जिनका वस्तु के साथ नित्यतादात्म्य संबंध है, उन्हें गुण कहते हैं और जो दशा क्रम से उत्पन्न होती है, उसे पर्याय कहते हैं। जिनागम में कहीं-कहीं द्रव्य की दो प्रकार की पर्यायें कही हैं; उनमें पहली नित्यरूप है, तद्प है और दूसरी अनित्य । उनमें जो पर्याय नित्य है, उसे गुण कहते हैं और जो पर्याय अनित्य है, उसे पर्याय कहते हैं। यह अत्यंत प्रबल और अछेद्य मत है। इन पर्यायों की अपेक्षा से द्रव्य उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और उत्पाद-व्ययरूप दोनों अवस्थाओं में अपने गुणों के साथ ध्रुवरूप रहता है। इसी से वस्तु का सद्भाव है और यह वस्तु का सहज स्वभाव है। इसमें कोई तर्क-वितर्क नहीं लगता; इसलिए व्यर्थ में गाल बजाने से कोई लाभ नहीं है। उक्त गाथा में वस्तु के उस स्वभाव का निरूपण है, जो प्रत्येक वस्तु का सहज स्वभाव है, मूलभूत स्वभाव है; क्योंकि सत् द्रव्य का लक्षण है। और वह सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है। __ एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ गुण और पर्याय - १. सद्व्य लक्षणम् : तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र), अध्याय-५, सूत्र-२९ २. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् : तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र), अध्याय-५, सूत्र-३० गाथा-१८ १११ इन दोनों को ही पर्याय शब्द से अभिहित किया गया है। यद्यपि आगम में भी इसप्रकार के कथन आते ही हैं; तथापि आजकल इसप्रकार के प्रयोग कम ही होते देखे हैं। गुणों को सहभावी पर्याय और पर्यायों को क्रमभावी पर्याय आगम कहा ही है। उसी को यहाँ मुख्य किया गया है। यही कारण है कि यहाँ इसप्रकार का प्रयोग हुआ है कि किसी पर्याय से वस्तु उत्पाद-व्ययरूप है और किसी पर्याय से ध्रुवरूप । तात्पर्य यह है कि क्रमभावी पर्याय से उत्पादव्ययरूप है और सहभावी पर्याय अर्थात् गुणों की अपेक्षा ध्रुव है। सब कुछ मिलाकर इस प्रकरण में यही कहा गया है कि सभी द्रव्यों के समान सिद्ध आत्मा भी, सर्वज्ञ आत्मा भी यद्यपि उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त हैं; तथापि वे सदाकाल सिद्ध ही रहेंगे, संसारी कभी नहीं होंगे। आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में इसके बाद एक गाथा ऐसी प्राप्त होती है कि जो आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका में उपलब्ध नहीं होती। वह गाथा इसप्रकार है - तं सव्वट्ठवरिष्टुं इ8 अमरासुरप्पहाणेहिं । ये सद्दहति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ।। (हरिगीत) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं। उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों ।। जो सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ तथा देवेन्द्र और असुरेन्द्रों के इष्ट हैं; उन सिद्ध भगवान की श्रद्धा जो जीव करते हैं; उनके सभी दुःखों का क्षय हो जाता है। उक्त गाथा में तो मात्र यही कहा गया है कि जिन सर्वज्ञ भगवान की, सिद्ध भगवान की यहाँ चर्चा चल रही है; वे सर्वश्रेष्ठ हैं, देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों को भी इष्ट हैं और जो व्यक्ति उनके स्वरूप को सही रूप में जानकर-पहिचान कर उनकी श्रद्धा करते हैं; उनके सभी कष्ट नष्ट हो जाते हैं। इस बात का विशेष स्पष्टीकरण आगे चलकर ८० वीं गाथा में आयेगा।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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