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________________ प्रवचनसार गाथा-१८ विगत गाथा में यह बताया गया है कि सिद्धभगवान के व्ययरहित उत्पाद और उत्पादरहित व्यय होने पर भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सदा विद्यमान रहते हैं। अब इस १८ वीं गाथा में यह बताते हैं कि उत्पादव्यय-ध्रौव्य तो प्रत्येक वस्तु का सहज स्वभाव है। मूल गाथा इसप्रकार है - उप्पादो य विणासो विजदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पजाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ।।१८।। (हरिगीत) सभी द्रव्यों में सदा ही होंय रे उत्पाद-व्यय । ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से ।।१८।। सभी पदार्थों के किसी पर्याय से उत्पाद और किसी पर्याय से विनाश होता है तथा किसी पर्याय से सभी पदार्थ सद्भूत हैं, ध्रुव हैं। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है गाथा-१८ १०७ आचार्य जयसेन ने इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए विविध उदाहरणों से अनेक अपेक्षायें स्पष्ट की हैं, जिनका संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण पाण्डे हेमराजजी ने भावार्थ में इसप्रकार किया है - ___ “द्रव्य का लक्षण अस्तित्व है और अस्तित्व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है। इसलिए किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से विनाश और किसी पर्याय से ध्रौव्यत्व प्रत्येक पदार्थ के होता है। प्रश्न - द्रव्य का अस्तित्व उत्पादादिक तीनों से क्यों कहा है, एकमात्र ध्रौव्य से ही कहना चाहिए; क्योंकि जो ध्रुव रहता है, वह सदा बना रह सकता है? उत्तर - यदि पदार्थ ध्रुव ही हो तो मिट्टी, सोना, दूध इत्यादि समस्त पदार्थ एक ही सामान्य आकार से रहना चाहिए; और घड़ा, कुंडल, दही इत्यादि भेद कभी न होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् भेद तो अवश्य दिखाई देते हैं। इसलिए पदार्थ सर्वथा ध्रुव न रहकर किसी पर्याय से उत्पन्न और किसी पर्याय से नष्ट भी होते हैं। यदि ऐसा न माना जाये तो संसार का ही लोप हो जाये। इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय है, इसलिए मुक्त आत्मा के भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अवश्य होते हैं। यदि स्थूलता से देखा जाये तो सिद्ध पर्याय का उत्पाद और संसार पर्याय का व्यय हुआ तथा आत्मत्व ध्रुव बना रहा। इस अपेक्षा से मुक्त आत्मा के भी उत्पाद-व्ययध्रौव्य होता है। ___ अथवा, मुक्त आत्मा का ज्ञान, ज्ञेय पदार्थों के आकाररूप हुआ करता है। इसलिए समस्त ज्ञेय पदार्थों में जिस-जिस प्रकार से उत्पादादिक होते हैं; उस-उस प्रकार से ज्ञान में उत्पादादिक होते रहते हैं; इसलिए मुक्त आत्मा के समय-समय पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं। अथवा अधिक सूक्ष्मता से देखा जाये तो अगुरुलघुगुण के कारण "जिसप्रकार स्वर्ण की उत्तरपर्यायरूप बाजूबंद पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है और पूर्वपर्यायरूप अंगूठी पर्याय से विनाश देखा जाता है तथा बाजूबंद और अंगूठी - दोनों ही पर्यायों में उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त नहीं होने से पीलापन पर्याय का ध्रुवत्व देखा जाता है। उसीप्रकार सभी द्रव्यों के किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से व्यय और किसी पर्याय से ध्रौव्य होता है - ऐसा जानना चाहिए। उक्त कथन से यह प्रतिपादित हुआ कि शुद्ध आत्मा के भी द्रव्य का लक्ष्यभूत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यंभावी है।"
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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