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________________ प्रवचनसार गाथा १६ विगत गाथाओं में यह बात आ गई है कि अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनंतवीर्य एकमात्र शुद्धोपयोग के फल हैं, शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाली निधियाँ हैं। शुद्धोपयोग आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाला वीतरागी परिणाम है । अत: यह सहजसिद्ध है कि यह भगवान आत्मा स्वयं ही अपनी निधियों को प्राप्त करता है; अत: स्वयंभू है। इसी बात को आगामी गाथा में कहा गया है; जो इसप्रकार हैतह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो। भूदो सयमेवादा हवदि संयभु त्ति णिहिट्ठो ।।१६।। (हरिगीत) त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन । स्वयं ही हो गये ताः स्वयम्भू सब जन कहें ।।१६।। इसप्रकार वह आत्मा स्वभाव को प्राप्त, सर्वज्ञ और सर्वलोक के अधिपतियों से पूजित स्वयमेव हुआ होने से स्वयंभू है - ऐसा कहा गया है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "शुद्धोपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घातिकर्मों के नष्ट हो जाने से जिसने शुद्ध अनन्त शक्तिवान चैतन्यस्वभाव प्राप्त किया है - ऐसा यह पूर्वोक्त आत्मा (१) शुद्ध अनंत शक्तियुक्त ज्ञायकस्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है - ऐसा, (२) शुद्ध अनंतशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से कर्मत्व का अनुभव करता हुआ, (३) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं साधकतम गाथा-१६ होने से करणता को धारण करता हुआ, (४) शुद्ध अनंतशक्तियुक्त ज्ञानरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से संप्रदानता को धारण करता हुआ, (५) शुद्ध अनंतशक्तिरूप ज्ञानरूप से परिणमित होने के समय पूर्व में प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादानता को धारण करता हुआ और (६) शुद्ध अनंतशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात करता हुआ स्वयमेव छह कारकरूप होने से अथवा उत्पत्ति अपेक्षा से द्रव्य-भाव भेदवाले घातिकर्मों को दूर करके स्वयमेव आविर्भूत होने से स्वयंभू कहलाता है। अत: निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का संबंध नहीं है कि जिससे शुद्धात्मलाभ की प्राप्ति के लिए बाह्यसामग्री ढूंढने की व्यग्रता से जीव व्यर्थ ही परतंत्र होते हैं।" इस गाथा का अर्थ करते हुए आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में अभिन्न षट्कारक की बात करते हैं और उनकी व्याख्या भी तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही करते हैं। ___ गाथा में तो मात्र इतना ही कहा गया है कि यह भगवान आत्मा स्वयं ही स्वभाव को प्राप्त कर सर्वज्ञ और सर्वलोक पूजित होता है; इसकारण स्वयंभू है । षट्कारकों की चर्चा गाथा में नहीं है। पर के सहयोग के बिना जो स्वयं के बल पर प्रतिष्ठित होता है, कुछ कर दिखाता है; उसे लोक में स्वयंभू कहा जाता है। अतः यहाँ दोनों टीकाओं में स्वयंभू की व्याख्या में स्वाधीन षट्कारकों की चर्चा की है। ___पंचास्तिकाय की ६२वीं गाथा में विकारी पर्याय भी आत्मा स्वाधीनपने ही प्रगट करता है - यह बताते हुए विकारी पर्याय संबंधी अभिन्न षट्कारकों की चर्चा की है और यहाँ अनंतसुख और सर्वज्ञतारूप निर्मल पर्याय संबंधी अभिन्न षट्कारकों की बात की गई है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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