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________________ प्रवचनसार अनुशीलन अक्ष पक्ष तें विलक्ष विषैसों रहित स्वच्छ । उपमा की गच्छ सों अलक्ष ध्याइयतु है ।। निराबाध हैं अनन्त एकरस रहैं संत । ऐसे शिवकंत की शरन जाइयतु है ।।४५।। शुद्धोपयोग पूर्णत: सिद्ध हुआ है जिनको - ऐसे अरहंत और सिद्ध भगवन्तों के आत्मा के स्वभाव के आश्रय से उत्पन्न हुआ सर्वाधिक अनाकुल सहज सुख पाया जाता है। वह सहज सुख इन्द्रियों के सुख से विलक्षण, विषयातीत, अत्यन्त निर्मल और किसी से भी जिसकी उपमा देना या तुलना करना संभव नहीं है - ऐसा अनुपम तथा निराबाध, अनंत और एक रस होता है। इसप्रकार का सुख जिन्हें प्राप्त है, उन मुक्तिवधू के कंत (पति) की शरण में मैं जाता हूँ। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाला अतीन्द्रिय आनन्द ही वास्तविक सुख है । पाँच इन्द्रियों और मन के स्पर्शादि विषयों से प्राप्त होनेवाला सुख तो नाममात्र का सुख है। ___वस्तुत: वह सुख सुख नहीं, दुःख ही है; क्योंकि वह पराधीन है, आकुलतारूप है, समय पाकर नष्ट हो जानेवाला है; अत: हेय है, छोड़ने योग्य है और शुद्धोपयोग के फल में प्राप्त होनेवाला परमार्थसुख अतीन्द्रिय है, विषयातीत है, स्वाधीन है, कभी भी नष्ट नहीं होता और निरन्तर रहता है तथा अनाकुल है; अत: उपादेय है, ग्रहण करनेयोग्य है। पर से भिन्नता का ज्ञान ही भेदविज्ञान है और पर से भिन्न निज चेतन भगवान का जानना, मानना, अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्मसाधना है, आत्माराधना है। सम्पूर्ण जिनागम और जिन-अध्यात्म का सार इसी में समाहित - दृष्टि का विषय, पृष्ठ-७९ प्रवचनसार गाथा-१४ शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ करते हुए विगत गाथा में कहा गया है कि शुद्धोपयोगियों को प्राप्त सुख ही सच्चा सुख है और अब इस आगामी गाथा में यह बता रहे हैं कि जिनके ऐसा परमानन्द है, अनंत आनंद है; वे शुद्धोपयोगी कौन हैं और वे होते कैसे हैं ? गाथा मूलत: इसप्रकार है - सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।।१४।। (हरिगीत) हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद् । शुद्धोपयोगी श्रमण केसमभाव भवसुख-दुक्ख में ।।१४।। जिन्होंने जीवादि पदार्थों और उनके प्रतिपादक सूत्रों को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तप से संयुक्त हैं, जो वीतराग हैं, जिन्हें सांसारिक सुख-दुःख समान हैं - ऐसे श्रमणों को शुद्धोपयोगी कहा गया है। उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं__ “स्व-पर के प्रतिपादक जिनसूत्रों के बल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और आचरण में समर्थ होने से जो सूत्रार्थ के जानकार हैं; छहकाय के सभी जीवों की हिंसा के विकल्प से और पाँचों इन्द्रियों की अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्त करके आत्मा के शुद्धस्वरूप में संस्थापित करने से संयमयुक्त और स्वरूप में विश्रान्त, विकल्प तरंगों से रहित तथा चैतन्य में प्रतपन होने से तपयुक्त हैं; इसप्रकार संयम और तप से युक्त हैं; सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के विपाक से
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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