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________________ गाथा-८७ ४१३ ४१२ प्रवचनसार अनुशीलन अर्थात् शक्ति, पर्याय अर्थात् अवस्था - इन तीनों में वाचक और वाच्य भेद है; किन्तु तीनों का स्वरूप अभेद गिनकर (समझकर यदि) एक नाम लिया जाये तो तीनों को अर्थ कहा जाता है। गुण शब्द शक्ति को बताता है, पर्याय शब्द अवस्था को बताता है; फिर भी यदि वाचक में भेद नहीं रखा जाये तो अर्थ - ऐसे एक ही शब्द से तीनों पहिचाने जाते हैं।' द्रव्य का स्वभाव गुण-पर्याय का पिंड है, गुण का स्वभाव अर्थात् वह त्रिकाली शक्तिरूप भाव है और पर्याय अर्थात् व्यक्त अवस्था-दशा; इसप्रकार स्वभावभेद है। इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय के नामभेद तीन हैं; किन्तु तीनों का वाचक भेद निकालकर यदि तीनों को एक ही शब्द से कहें तो उनको अर्थ कहा जाता है। दिव्यवाणी में वस्तु की जो मर्यादा भगवान ने कही है कि प्रत्येक द्रव्य अपने गुण-पर्याय को प्राप्त होता है - यही वस्तु की मर्यादा है। अतः आत्मा भी अपने गुण-पर्याय को प्राप्त होता है; किन्तु दूसरे पदार्थ आत्मा की पर्याय को पहुँच जावे - ऐसी वस्तु की मर्यादा नहीं है तथा आत्मा दूसरे पदार्थ की पर्याय को पहुँचे - ऐसी भी वस्तु की मर्यादा नहीं है - यह महासिद्धान्त है। जिसप्रकार भूमि के बिना वृक्ष नहीं ऊगते, वैसे ही वस्तु के द्रव्यगुण-पर्याय के भान बिना चारित्र नहीं हो सकता । वीतराग द्वारा कहे गए द्रव्य-गुण-पर्याय के यथार्थ ज्ञान द्वारा सम्यग्दर्शन होता है।' यहाँ 'अर्थ' शब्द का आशय शब्दार्थ नहीं है, अपितु यहाँ द्रव्यगुण-पर्याय तीनों को अर्थ कहते हैं । गुण-पर्याय द्रव्य को प्राप्त करते हैं; इसलिए अर्थ हैं। आत्मा, परमाणु आदि जितने भी पदार्थ हैं, वे अपने ही गुण-पर्याय को पहुँचते हैं। पर्याय, द्रव्य से प्राप्त होती है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२६६-२६७ २. वही, पृष्ठ-२६७ ३. वही, पृष्ठ-२६८ ४. वही, पृष्ठ-२८०-२८१ ५. वही, पृष्ठ-२८१ शुद्ध अशुद्ध पर्याय का पिंड द्रव्य है। अशुद्ध पर्याय द्वारा और शुद्ध पर्याय द्वारा द्रव्य प्राप्त किया जाता है। गुण कायमी स्वभाव है, पर्याय क्षणिक स्वभाव है, मिथ्यात्व-राग-द्वेष भी क्षणिक स्वभाव है।' समयसार में भी बन्ध-मोक्ष की पर्याय अभूतार्थ और कायमी (ध्रुव) स्वभाव को भूतार्थ कहा है, वहाँ अभेददृष्टि का कथन है। यहाँ ज्ञानप्रधान कथन है । ज्ञान स्व-परप्रकाशक है। वह ज्ञान स्व को जानता है, गुणपर्याय को जानता है तथा अशुद्धि को जानता है।" इसप्रकार इस गाथा में द्रव्य-गुण-पर्याय का सामान्य स्वरूप बताते हुए मात्र इतना ही कहा गया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय - इन तीनों को अर्थ कहते हैं । द्रव्य को भी अर्थ कहते हैं; गुण को भी अर्थ कहते हैं और पर्यायों को भी अर्थ कहते हैं। ध्यान रहे द्रव्य, गुण और पर्याय - इन तीनों को मिलाकर भी अर्थ कहते हैं और तीनों को पृथक्-पृथक् भी अर्थ कहते हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय - इन तीनों में कथंचित् भेदाभेद है। तात्पर्य यह है कि ये तीनों प्रदेशों की अपेक्षा एक हैं, परन्तु भाव की अपेक्षा जुदेजुदे हैं; क्योंकि इनमें प्रदेशभेद नहीं है, पर भावभेद है। द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा आगे विस्तार से आनेवाली है; अत: यहाँ विशेष विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२८१ २. वही, पृष्ठ-२८५ अपने को जीतना ही सच्ची वीरता है, मोह-राग-द्वेष को जीतना ही अपने को जीतना है। दूसरों को तो इस जीव ने हजारों बार जीता है, पर अपने को नहीं जीता। दूसरों को जानने और जीतने में इस जीव ने अनन्त भव खोये हैं और दुख ही पाया है। एक बार अपने को जान लेता और अपने को जीत लेता तो ज्ञानानन्दमय हो जाता। भव-भ्रमण से छूटकर भगवान बन जाता। - तीर्थ. महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-५९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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