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________________ ३७४ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-८० उत्तर - अरे भाई ! जानना भी तो एक काम है, और आत्मा का तो एकमात्र काम जानना ही है; क्योंकि यह आत्मा पर में तो कुछ कर ही नहीं सकता; अपने स्व-परप्रकाशक स्वभाव के कारण यह आत्मा पर को तो मात्र जान ही सकता है। जानना भी एक काम नहीं, अपितु आत्मा का काम तो एकमात्र जानना ही है। लोक में भी करने की अपेक्षा जानने को बड़ा काम माना जाता है। मजदूर काम करता है तो उसे मजदूरी में प्रतिदिन १०० रुपये मिलते हैं; पर अनेक मजदूरों को देखने-जाननेवाले ओवरसियर को प्रतिदिन ३०० रुपये मिलते हैं और मजदूरों को देखनेवालों को देखने-जाननेवाले ठेकेदार या मालिक की आय अनलिमिटेड होती है, अनन्त होती है। इसीप्रकार जगत को देखने-जाननेवालों की अपेक्षा देखने-जाननेवाले आत्मा को देखनेजाननेवाला आत्मा अधिक महान है; क्योंकि ज्ञायकस्वभावी आत्मा को जाननेवाले ही अनन्त सुख की प्राप्ति करते हैं। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ आत्मा और परमात्मा - दोनों को जानने की बात कहकर यह भी कह दिया है कि आत्मा स्व और पर दोनों को जान लेता है; क्योंकि आत्मा स्व है और परमात्मा पर हैं। इसतरह यह भी प्रतिफलित होता है कि मिथ्यात्व के नाश के लिए स्व (आत्मा) और पर (परमात्मा) दोनों को जानना अनिवार्य है। पर के जानने को निरर्थक बतानेवाले लोगों को उक्त तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। मिथ्यात्व के नाश का आशय मिथ्यात्व नामक कर्म के नाश से नहीं; क्योंकि वह तो परद्रव्य है और परद्रव्य की क्रिया का कर्ता-धर्ता भगवान आत्मा है ही नहीं । यहाँ तो परपदार्थों और रागादि विकारों में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रूप मिथ्यात्व भाव के नाश की बात है। हाँ, यह बात अवश्य है कि इनके अभाव होने पर मिथ्यात्व नामक कर्म के भी यथायोग्य उपशमादि हो जाते हैं। ३७५ अरहंत परमात्मा हमारे किस काम के हैं, हमें उनका क्या करना है ? उनके दर्शन करना है, पूजा करनी है, प्रतिष्ठा करनी है, मन्दिर बनवाना है ? अरे भाई ! यह कुछ भी नहीं करना है, उन्हें मात्र जानना है, जानने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना है; क्योंकि यहाँ तो यही लिखा है कि जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानते हैं; वे अपने आत्मा को जानते हैं और उनका मोह नाश को प्राप्त होता है। मोह के नाश के लिए, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए परमात्मा को मात्र जानना है; जानने के अलावा कुछ नहीं करना है; क्योंकि वे तो हमारे मात्र ज्ञेय हैं और कुछ नहीं। ध्यान रहे, यहाँ यह नहीं लिखा है कि उन्हें जानना भी नहीं है; क्योंकि वे पर हैं। यहाँ तो उन्हें जानने की बात डंके की चोट पर लिखी है और उन्हें जानने का फल आत्मा को जानना बताया है। आत्मा के जानने पर मोह का नाश होता है; इसप्रकार प्रकारान्तर से उनके जानने को मोह के नाश का उपाय बताया गया है। आत्मा का कार्य मात्र जानना है, स्व-पर को जानना है; इसलिए मात्र जानो, जानो, जानो और जानो; पर को जानो, स्व को जानो, स्वपर को जानो; पर से भिन्न स्व को जानो, जानो और जानते रहो। अपने को अपना मानकर जानते रहो, लगातार जानते रहो और कुछ भी नहीं करना है। इसी से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सभी हो जावेंगे और न केवल दर्शनमोह अपितु चारित्रमोह का भी नाश हो जायेगा। तुम स्वयं पर्याय में भी भगवान बन जावोगे । स्वभाव से तो भगवान हो ही; पर्याय में बनना है सो इसीप्रकार स्व को जानते रहने से पर्याय में भी भगवान बन जावोगे, सर्वज्ञ-वीतरागी हो जावोगे। ___इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि मोह के नाश का उपाय एकमात्र निजभगवान आत्मा को जानना है और अधिक आगे जावे तो इसमें द्रव्यगुण-पर्याय से परमात्मा के स्वरूप को जानना भी शामिल कर सकते हैं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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