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________________ ३७० प्रवचनसार अनुशीलन दिया, तब द्रव्य और पर्याय के बीच कोई भेद नहीं रहा अर्थात् द्रव्य कर्ता और पर्याय उसका कार्य है - ऐसे भेद का अभेद के अनुभव के समय क्षय हो जाता है। पर्यायों को और गुणों को अभेदरूप से आत्मद्रव्य में ही समाविष्ट करके परिणामी, परिणाम और परिणति (कर्ता-कर्म और क्रिया) को अभेद में समाविष्ट करके अनुभव करना सो अनन्त पुरुषार्थ है और यही ज्ञान का स्वभाव है। वास्तव में तो जिससमय अभेदस्वभाव की ओर झुकते हैं, उसीसमय कर्ता-कर्म-क्रिया का भेद टूट जाता है, तथापि यहाँ 'उत्तरोत्तर क्षण में क्षय होता जाता हैं' - ऐसा कहा है ? सम्यक्त्व हुआ सो हुआ, अब उत्तरोत्तर क्षण में द्रव्य-पर्याय के बीच के भेद को सर्वथा तोड़कर केवलज्ञान को प्राप्त किए बिना नहीं रुकता।' __ कर्ता-कर्म और क्रिया का भेद नहीं है तथा कर्ता-कर्म-क्रिया संबंधी विकल्प नहीं है, इस अपेक्षा से 'निष्क्रिय' कहा गया है; परन्तु अनुभव के समय अभेदरूप से परिणति तो होती रहती है। पहले जब परलक्ष्य से द्रव्य पर्याय के बीच भेद होते थे, तब विकल्परूप क्रिया थी; किन्तु निज द्रव्य के लक्ष्य से एकाग्रता करने पर द्रव्य-पर्याय के बीच का भेद टूटकर दोनों अभेद हो गए, इस अपेक्षा से चैतन्यभाव को निष्क्रिय कहा है। जानने के अतिरिक्त जिसकी अन्य कोई क्रिया नहीं है - ऐसे ज्ञानमात्र निष्क्रियभाव को इस गाथा में कथित उपाय के द्वारा ही जीव प्राप्त कर सकता है।' __अभेद अनुभव के द्वारा 'चिन्मात्रभाव को प्राप्त करता है' यह बात अस्ति की अपेक्षा से कही अब चिन्मात्रभाव को प्राप्त करने पर मोह नाश को प्राप्त होता है' इसप्रकार नास्ति की अपेक्षा से बात करते हैं। चिन्मात्रभाव १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३६७ २. वही, पृष्ठ-३६७ ३. वही, पृष्ठ-३६७-६८ ४. वही, पृष्ठ-३६८ ५. वही, पृष्ठ-३६८ गाथा-८० ३७१ की प्राप्ति और मोह का क्षय यह दोनों एक ही समय में होते हैं। आचार्यदेव अपने स्वभाव की नि:शंकता से कहते हैं कि भले ही इस काल में क्षायिक सम्यक्त्व और साक्षात् भगवान अरहंत का योग नहीं है; तथापि मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया। __मोह का नाश करने के लिए न तो परजीवों की दया पालन करने को कहा है और न पूजा, भक्ति करने का ही आदेश दिया है; किन्तु यह कहा है कि अरहंत का और अपने आत्मा का निर्णय करना ही मोह क्षय का उपाय है। पहले आत्मा की प्रतीति न होने से अपनी अनन्त हिंसा करता था और अब यथार्थ प्रतीति करने से अपनी सच्ची दया प्रगट हो गई है और स्व हिंसा का महापाप दूर हो गया है। ___ जहाँ सर्वज्ञ का निर्णय किया कि वहाँ त्रिकाली क्रमबद्धपर्याय का निर्णय हो जाता है। वास्तव में तो मेरे स्वभाव में जो क्रमबद्ध अवस्था है, उसी को केवलज्ञानी ने जाना है। ऐसा जिसने निर्णय किया है, उसी ने अपने स्वभाव की प्रतीति की है। जिसने अरहंत जैसे ही अपने स्वभाव का विश्वास करके क्रमबद्धपर्याय और केवलज्ञान को स्वभाव में अन्तर्गत किया है, उसे क्रमबद्धपर्याय में केवलज्ञान होता है। अरहंत अपने पुरुषार्थ के बल से ही कर्म का क्षय करके पूर्ण दशा को प्राप्त हुए हैं। उसीप्रकार मैं भी अपने पुरुषार्थ के बल से ही कर्म का क्षय करके पूर्णदशा को प्राप्त होऊँगा, बीच में कोई विघ्न नहीं है। जो अरहंत की प्रतीति करता है, वह अवश्य अरहंत होता है।" इस गाथा में मोह के नाश करने का उपाय बताया गया है। मोह दो प्रकार का होता है - १. दर्शनमोह और २. चारित्रमोह । दर्शनमोह में १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३७१ ३. वही, पृष्ठ-३७१ ४ . वही, पृष्ठ-३७२ २. वही, पृष्ठ-३७१ ५. वही, पृष्ठ-३७२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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