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________________ ३६६ गाथा-८० ३६७ प्रवचनसार अनुशीलन की ग्रन्थि कहा है। अरहंत को केवलज्ञानदशा होती है, जो केवलज्ञानदशा है सो चिद्विवर्तन की वास्तविक ग्रन्थि है। जो अपूर्ण ज्ञान है सो स्वरूप नहीं है। केवलज्ञान होने पर एक ही पर्याय में लोकालोक का पूर्ण ज्ञान समाविष्ट हो जाता है, मति-श्रुत पर्याय में भी अनेकानेक भावों का निर्णय समाविष्ट हो जाता है। अरहंत के स्वरूप को द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से जाननेवाला जीव त्रैकालिक आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से एक क्षण में समझ लेता है। बस ! यहाँ आत्मा को समझ लेने तक की बात की है, वहाँ तक विकल्प है, विकल्प के द्वारा आत्मलक्ष्य किया है, अब उस विकल्प को तोड़कर द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद को छोड़कर अभेद आत्मा का लक्ष्य करने की बात कहते हैं । इस अभेद का लक्ष्य करना ही अरहंत को जानने का सच्चा फल है और जब अभेद का लक्ष्य करता है, तब उसी क्षण मोह का क्षय हो जाता है। जिस अवस्था के द्वारा अरहंत को जानकर त्रैकालिक द्रव्य का ख्याल किया, उस अवस्था में जो विकल्प होता है, वह अपना स्वरूप नहीं है; किन्तु जो ख्याल किया है, वह अपना स्वभाव है। ख्याल करनेवाला जो ज्ञान है, वह सम्यक्ज्ञान की जाति का है, किन्तु अभी पर का लक्ष्य है; इसलिए यहाँ तक सम्यग्दर्शन प्रगटरूप नहीं है। अब उस अवस्था को परलक्ष से हटाकर स्वभाव में संकलित करता है-भेद का लक्ष्य छोड़कर अभेद के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन को प्रगटरूप करता है। जैसे मोती का हार झूल रहा हो तो उस झूलते हुए हार को लक्ष्य में लेने पर उसके पहले से अन्त तक के सभी मोती उस हार में ही समाविष्ट हो जाते हैं और हार तथा मोतियों का भेद लक्ष्य में नहीं आता। यद्यपि प्रत्येक मोती पृथक्-पृथक १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३६०-३६१ है; किन्तु जब हार को देखते हैं, तब एक एक मोती का लक्ष्य छूट जाता है; परन्तु पहले हार का स्वरूप जानना चाहिए कि हार में अनेक मोती हैं और हार सफेद है, इसप्रकार पहले हार, हार का रंग और मोती इन तीनों का स्वरूप जाना हो तो उन तीनों को झूलते हुए हार में समाविष्ट करके हार को एकरूप से लक्ष्य में लिया जा सकता है, मोतियों का जो लगातार तारतम्य है सो हार है। प्रत्येक मोती उस हार का विशेष है और उन विशेषों को यदि एक सामान्य में संकलित किया जाय तो हार का लक्ष्य में आता है। हार की तरह आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्यायों को जानकर पश्चात् समस्त पर्यायों को और गुणों को एक चैतन्य द्रव्य में ही अन्तर्गत करने पर द्रव्य का लक्ष्य होता है और उसी क्षण सम्यग्दर्शन प्रगट होकर क्षय हो जाता है। यहाँ झूलता हुआ अथवा लटकता हुआ हार इसलिए लिया है कि वस्तु कूटस्थ नहीं है; किन्तु प्रतिसमय झूल रही है अर्थात् प्रत्येक समय में द्रव्य में परिणमन हो रहा है। जैसे हार के लक्ष्य से मोती का लक्ष छूट जाता है, उसीप्रकार द्रव्य के लक्ष्य से पर्याय का लक्ष्य छूट जाता है। पर्यायों में बदलनेवाले के लक्ष्य से समस्त परिणामों को उसमें अन्तर्गत किया जाता है। पर्याय की दृष्टि से प्रत्येक पर्याय भिन्न-भिन्न है, किन्तु जबतक द्रव्य की दृष्टि से देखते हैं, तब समस्त पर्यायें उसमें अंतर्गत हो जाती हैं। इसप्रकार आत्मद्रव्य को ख्याल में लेना ही सम्यग्दर्शन है।' पहले सामान्य-विशेष (द्रव्य-पर्याय) को जानकर फिर विशेषों को सामान्य में अंतर्गत किया जाता है; किन्तु जिसने सामान्य-विशेष का स्वरूप न जाना हो, वह विशेष को सामान्य में अंतर्लीन कैसे करे ? । पहले अज्ञान के कारण द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद करता था, इसलिए उन भेदों के आश्रय से मोह रह रहा था; किन्तु जहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय को अभेद किया, वहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय का भेद दूर हो जाने से मोह क्षय को प्राप्त होता है। द्रव्य-गुण-पर्याय की एकता ही धर्म है और द्रव्य-गुण१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३६३
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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