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________________ गाथा-७८ ३४२ प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा ज्ञानानन्द है, उसकी एकाग्रता में निवास करना ही दुख के क्षय का उपाय है; इसके अतिरिक्त प्रतिकूल सामग्री को दूर करना चाहे और अनुकूल सामग्री को रखना चाहे तो वह सुख का उपाय नहीं है। चिदानंद आत्मा सुख का साधन है, इसके सिवाय दूसरा कोई भी सुख का साधन नहीं - ऐसा निर्णय करना चाहिए।' ___ पुण्य-पाप तथा शुभ-अशुभ सभी एक हैं, मेरा स्वभाव उनसे भिन्न है - ऐसा निर्णय होने पर भ्रांति का दुख नाश हुआ; उसके बाद अपनी कमजोरी से होनेवाला अस्थिरता के दुख का नाश स्वभाव में स्थिरता होने से हो जाता है। ज्ञानस्वभाव में सुख है - ऐसा निर्णय होने पर भ्रांति का दुख दूर हो जाता है; किन्तु अस्थिरता का दुख सर्वज्ञ हुए बिना दूर नहीं होता; इसलिए पुण्य-पाप के भाव का नाश स्वभाव में एकाग्रता करने से होता है। इसप्रकार अर्थात् ऊपर (पूर्वोक्त) गाथा में कहे अनुसार वस्तु का स्वरूप जानकर राग-द्वेष को प्राप्त नहीं होता - ऐसा कहा है। अग्नि लोहे का संग करती है तो उसे घन का प्रहार सहन करना पड़ता है; यदि वह अग्नि लोहे के गोले में न जाय तो घन का प्रहार न पड़े; वैसे ही चैतन्य अग्नि पुण्य-पापरूपी लोहे में जाये तो उसे दुख का प्रहार सहन करना पड़ता है; किन्तु चैतन्य अग्नि पुण्य-पापरूपी लोहे में न जाये और अकेली शुद्ध रहे तो उसे दुख सहन नहीं करना पड़ता। ___ लोहे के टुकड़ों को छोटा अथवा बड़ा बनाना हो तो उसे अग्नि में डाले तो उसके ऊपर प्रहार पड़ते हैं, किन्तु अकेली अग्नि के ऊपर कोई प्रहार नहीं करता, वैसे ही चैतन्य ज्ञानानन्दस्वरूप में एकाग्र हो और पुण्यपाप में न जाये तो दुख सहन नहीं करना पड़ता। पुण्य-पापके संबंध को सर्वप्रथम श्रद्धा से तोड़े उसके बाद अस्थिरता १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१७९ २. वही, पृष्ठ-१७९-१८० ३. वही, पृष्ठ-१८१ ४. वही, पृष्ठ-१८१ ३४३ का संबंध तोड़े। वास्तव में शुद्धोपयोग ही शरण है, स्त्री-पुत्रादि तो शरण नहीं; किन्तु शुभराग भी शरणरूप नहीं है। एकमात्र शुद्ध आत्मा ही शरण है। सर्वप्रथम इसप्रकार निर्णय करना चाहिए। शुभराग वास्तविक सुख नहीं है। आत्मा चैतन्य सर्वज्ञस्वभावी है। उसका निर्णय करे तो पुण्यपाप शरण है - ऐसी मान्यता नहीं रहती; ऐसा निर्णय होने के पश्चात् चारित्र आता है, वह चारित्र मुक्ति का साक्षात् कारण है।" निष्कर्ष के रूप में इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि मुझे तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही शरण है; क्योंकि जो व्यक्ति विगत गाथाओं में प्ररूपित वस्तुस्वरूप को भलीभाँति जानकर द्रव्यों से राग-द्वेष नहीं करता; वह शुद्धोपयोगी सम्पूर्ण देहोत्पन्न दुखों का क्षय करता है। तात्पर्य यह है कि एकमात्र उपादेय तो शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोग ही है; अशुद्धोपयोगरूप सभी शुभाशुभभाव समानरूप से हेय ही हैं। यह शुभपरिणामाधिकार शुभपरिणामों की महिमा बताने के लिए नहीं कयअपिल जसका सही रूम दिखाकर उसके प्रति होनेवाले आकर्षण को तोड़ने के लिए लिखा गया है। व्यवहारी को व्यवहार की भाषा में समझाना पड़ता है। मुनिजन क्षमा के भण्डार होते हैं। यदि वे अपनी ओर से बोलेंगे तो यही बोलेंगे कि क्षमा का अभाव क्रोध है, पर दुनिया में भाव होता है वक्ता का और भाषा होती है श्रोता की। यदि श्रोता की भाषा में न बोला गया तो वह कुछ समझ ही न सकेगा। अत: ज्ञानीजन समझाना तो चाहते हैं क्षमाधर्म, पर समझाते हैं क्रोध की बात करके । बच्चों से बात करने के लिए उनकी ओर से बोलना पड़ता है। जब हम बच्चे से कहते हैं कि माँ को बुलाना, तब हमारा आशय बच्चों की माँ से होता है, अपनी माँ से नहीं; क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसा कहने पर बच्चा अपनी माँ को बुलायेगा, हमारी माँ को नहीं। -धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ-१२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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