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________________ ३३० प्रवचनसार अनुशीलन था, उनका उपभोग तो एकान्त में होता ही था; पर आज सबकुछ सामने आ गया है। पहले खाने की सभी सामग्री रसोईघर में रहती थी; पर आज सभी कुछ भोजन की टेबल पर पारदर्शक बर्तनों में सजा रहता है; जो हमें खाने के लिए उत्तेजित करता है। पहले जो थाली में आ गया, खा लिया; पर आज अपने हाथ से उठा-उठाकर सबकुछ लिया जाता है। टी.वी. आदि सभी उत्तेजक सामग्री बेडरूम में आ गई है और सत्साहित्य वहाँ से यह कहकर हटा दिया गया है कि इसकी अविनय होगी। अरे भाई ! वैराग्यमय चित्र और वैराग्योत्पादक साहित्य घर में रखो, उसे पढ़ते-पढ़ते सोवोगे तो स्वप्न भी सात्विक आयेंगे। उत्तेजक सामग्री न केवल हमारी वासनाओं को भड़काती है, उत्तेजित करती है; अपितु हमारी कुत्सित वृत्ति की प्रतीक भी है, परिणाम भी है। हमारी वृत्ति ही खोटी है; इसीकारण इन भड़काऊ चीजों का प्रवेश हमारे बेडरूम में हुआ है । इसप्रकार ये भोग सामग्री हमारी उत्तेजित वासनाओं का परिणाम है। और हमारी वासनाओं को भड़कानेवाली भी हैं; अत: इन्हें गुप्त रखना ही ठीक है। ये प्रदर्शन की वस्तुएँ नहीं हैं। ये भोगायतन हैं; इनसे हमारा घर भी भोगायतन ही बनेगा । यदि हमें अपने घर को धर्मायतन बनाना है तो वैराग्यपोषक चित्र और सत्साहित्य घर में बसाना चाहिए। न केवल बसाना चाहिए, अपितु उसका अध्ययन भी नित्य करना चाहिए। स्वयं करना चाहिए और घरवालों को भी कराना चाहिए। जिस घर में सत्साहित्य नहीं, वह घर नहीं, मसान है। यदि अपने घर की श्मशानहींबन को मुत बसाओ, बस्ती बक्सियो सम्मान काम को घर में करो७ ॥ ● - कुन्दकुन्द शतक, पृष्ठ-३१, छन्द ९७ प्रवचनसार गाथा- ७७ विगत गाथाओं में अनेक तर्क और युक्तियों से यह सिद्ध किया गया है कि इन्द्रियसुख सुख नहीं है, दुख ही है। अब इस गाथा में यह समझा रहे हैं कि जब पाप के उदय में प्राप्त होनेवाले दुख के समान ही पुण्य के उदय में प्राप्त होनेवाला इन्द्रियसुख भी दुख ही है तो फिर पुण्य-पाप में अन्तर ही क्या रहा ? गाथा मूलतः इसप्रकार है - हिदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।। ७७ ।। ( हरिगीत ) पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये । संसार - सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे ।।७७ ।। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “विगत गाथाओं में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप के अनुसार जब परमार्थ से शुभाशुभ उपयोग में और सुख-दुःख में द्वैत नहीं ठहरता; तब पुण्य और पाप में द्वैत कैसे ठहर सकता है ? क्योंकि पुण्य और पाप - दोनों में ही अनात्मधर्मत्व समान है। तात्पर्य यह है कि पुण्य और पाप दोनों ही आत्मा के धर्म नहीं; इसलिए आत्मधर्म के आराधकों को दोनों ही समानरूप से अधर्म हैं। ऐसा होने पर भी जो जीव उन दोनों में सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति अन्तर मानता हुआ अहमिन्द्रपदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यन्त निर्भररूप से अवलम्बित है; कर्मोपाधि से विकृत चित्तवाले उस जीव ने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है; इसलिए
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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