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________________ गाथा-७५ ३२३ यदि संसार में सुख होता तो सर्वानुकूल संयोगों के धनी महापुण्यवान तीर्थंकर इस संसार का परित्याग करके दीक्षा क्यों लेते ? शान्तिनाथ भगवान तो तीर्थंकर होने के साथ-साथ चक्रवर्ती और कामदेव भी थे। उनसे अधिक पुण्यवान और कौन हो सकता है; पर पुण्योदय से प्राप्त समस्त अनुकूलताओं को छोड़कर नग्न दिगम्बर दीक्षा लेकर वे आत्मतल्लीन हो गये; क्योंकि सच्चा सुख आत्मरमणता में है; अनुकूल भोगों के भोगने में नहीं। ३२२ प्रवचनसार अनुशीलन के कारण दु:खी होता है, फिर भी उसकी ओर का झुकाव नहीं छोड़ता और विषयों की इच्छा करता है। तृष्णावान जीव, मरणपर्यन्त क्लेश पाता है, इसलिए पुण्य दुःख का ही साथी है। जिन्हें आत्मा के आश्रय से संतोष नहीं, उन्हें व्यक्त और अव्यक्त तृष्णा रहती ही है। आत्मा की शान्ति अथवा आनन्द, ज्ञानस्वरूप के आश्रय से होता है; जो उसका आश्रय छोड़कर इन्द्रियों का आश्रय करता है, उसे सुख नहीं; किन्तु तृष्णा है। तथा बाह्य द्रव्यलिंगी मुनि ने हजारों रानियों को छोड़ा हो, लक्ष्मी का भी त्याग किया हो; किन्तु अन्तरस्वभाव की तृप्ति नहीं; इसलिए उसे भी तृष्णा रहती है। आत्मा की शान्ति अन्तर अमृतस्वरूप के आधार से है; जिसे ऐसे अन्तरस्वरूप की तृप्ति नहीं वर्तती, उसे तृष्णा का वेग होता ही है, जो किसी को तो प्रगट दिखाई देता है और किसी को अप्रगट रहता है। अन्तर में संतोष नहीं आया हो तो तृष्णारूपी बीज क्रमश: अंकुरित होहोकर दु:खवृक्षरूप से वृद्धि को पाता है।" इसप्रकार इस गाथा में अनेकप्रकार से यही स्पष्ट किया गया है कि जिसके तृष्णा है; वह दुखी ही है। पाप के उदयवाले प्रतिकूल संयोगों से अथवा अनुकूल संयोगों के न होने से दुखी हैं और पुण्य के उदयवाले तृष्णा के कारण भोगों को भोगते हुए भी आकुलित हैं, दुखी हैं। इस संसार में सुखी कोई नहीं है। वैराग्यभावना में भी कहा गया है कि - जो संसारविर्षे सुख हो, तो तीर्थंकर क्यों त्यागें। काहे को शिवसाधन करते, संयम सौं अनुरागें ।। मेरे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मैं ही हूँ ___ हमारी दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व से अधिक महिमा हमारे भगवान आत्मा की होनी चाहिए। ऐसा चुनाव हो, जिसमें एक ओर हमारा भगवान आत्मा हो और दूसरी ओर अनंत भगवान आत्मा सहित छह द्रव्य हों तो भी हमें हमारे भगवान आत्मा की इतनी महिमा होनी चाहिए कि हम हमारे भगवान आत्मा को ही चुनें। __यदि एक तरफ हम चुनाव में खड़े हों और दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज खड़े हों तो भी कम से कम हमारा एक वोट तो हमारे लिए होना ही चाहिए। __इसी भाँति हमारी दृष्टि में मेरा आत्मा' ही सबसे महत्त्वपूर्ण लगना चाहिए; क्योंकि उसी की आराधना से मुझे सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होगी, अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होगी, उसकी दृष्टि रही तो ही मुझे सुख मिलेगा। सारी दुनिया पर दृष्टि जाने से मुझे मेरा सुख मिलनेवाला नहीं है। -समयसार का सार, पृष्ठ-८७-८८ १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१५९-१६० २. वही, पृष्ठ-१६० ३. वही, पृष्ठ-१६१
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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