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________________ गाथा-७३-७४ ३१७ ३१६ प्रवचनसार अनुशीलन दिखाई देती है; उसीप्रकार इन्द्रादि भी लोक भोगों को भोगते हुए सुखी से दिखाई देते हैं; किन्तु वे चाह की दाह से दग्ध हैं, साम्यभाव को प्राप्त नहीं होते; क्योंकि यहाँ जगत में उन्हें अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले धर्म का संयोग नहीं है। (कवित्त) जो निहचै करि शुभपयोग” उपजत विविध पुण्य की रास । स्वर्गवर्ग में देवनि के वा भवनत्रिक में प्रगट प्रकास ।। तहाँ तिन्हैं तृष्णानल बाढ़त, पाय भोग-घृति आहुति ग्रास । जातें वृन्द सुधा-समरस विन, कबहुँन मिटत जीव की प्यास ।।९।। निश्चय से तो शुभोपयोग के फल में अनेक पुण्य उत्पन्न होते हैं। स्वर्गों में; भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उक्त पुण्य का प्रकाश प्रगट दिखाई देता है। जिसप्रकार घृत की आहुति पाकर अग्नि प्रज्वलित हो जाती है; उसीप्रकार भोगोंरूपी घी की आहुति प्राप्त कर उन देवों के तृष्णारूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। इसलिए कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं कि समतारसरूपी अमृत के बिना जीवों की प्यास कभी भी शान्त नहीं हो सकती। ___ उक्त गाथाओं में समागत भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो अभी पाप में ही रचे-पचे हैं, वे तो प्रत्यक्ष दुखी ही हैं। काला बाजार करें, उनकी क्या बात करें, उनके तो पुण्य का भी ठिकाना नहीं; किन्तु यहाँ तो उत्तम पुण्यवाले की बात लेते हैं। चक्रवर्ती को कुदरती ऋद्धि चली आती है; फिर भी वे दु:खी हैं। विषयों में झपट्टा मारनेवाले तो दु:खी ही हैं। अधिक पुण्यवाले सुखी जैसे भासित होते हैं; किन्तु वे दु:खी ही हैं। पुण्य तथा उसके फल की विद्यमानता है, उसको अस्वीकार नहीं करते, किन्तु वह दुःखरूप है - यह बताते हैं। अत: आत्मा की सच्ची श्रद्धाज्ञान-रमणता ही सुखरूप है - ऐसा निर्णय करना चाहिए। शुभ के कारण मिलनेवाले संयोग से जीव सुखी जैसा भासित होता है; किन्तु वह सुखी नहीं है। ___ इसप्रकार इस गाथा में पुण्य की विद्यमानता स्वीकार करके आगे की गाथा में पुण्य को तृष्णा का बीज बतायेंगे। ज्ञानतत्त्व में पुण्य नहीं है। इसलिए पुण्य के आधार से सुख लेना चाहे, वह भ्रांति है। पुण्य तो तृष्णा का कारण है; पुण्य के कारण मिलनेवाले संयोगों की ओर लक्ष्य करे तो तृष्णा होती है। शुभ के कारण संयोग मिले और उनकी ओर लक्ष्य जाने पर तृष्णा होती है; किन्तु शान्ति उत्पन्न नहीं होती। दुनिया जिसे धर्म कहती है - ऐसे शुभभाव को यहाँ पुण्य कहा है। पुण्य से बाहर की सामग्री मिलती है। देवगति के जीवों को भी विषयों की तृष्णा होती है; किन्तु उन्हें आत्मा की शान्ति नहीं मिलती। ____ पुण्य की दृष्टिवाला पुण्य के फल के प्रति तृष्णा उत्पन्न करता है। पूर्व में शुभभाव किया हो तो उसके कारण सेठ, राजा, देव आदि होता है और वे सभी तृष्णा से दु:खी होते हैं। पुण्य के कारण सामग्री मिलती है और सामग्री तृष्णा उत्पन्न करती है - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताते हैं। उनका लक्ष्य सामग्री के ऊपर जाता है, यदि स्वभाव के ऊपर लक्ष्य जाये तो तृष्णा उत्पन्न न हो। उनकी दृष्टि पुण्य के फल पर है; इसलिए वे एकमात्र विषयतृष्णा उत्पन्न करते हैं। अत: पुण्य का फल तृष्णा का घर है। __यदि सामग्री में तृष्णा न करे तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे। जिसके पास हजार रुपये होते हैं, वह दस हजार की इच्छा करता है, दस १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१५०-१५१ २. वही, पृष्ठ-१५१ ३. वही, पृष्ठ-१५३ ४. वही, पृष्ठ-१५३
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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