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________________ गाथा-७२ ३११ ३१० प्रवचनसार अनुशीलन है; किन्तु पैसेवाले सभी आकुलित हैं। चाहे वे रंक हो अथवा राजा हो, सोलह हजार देव जिनकी सेवा करते हों - ऐसा कोई चक्रवर्ती हो और दूसरा ऐसा कोई मनुष्य हो कि जिसके शरीर में कीड़े पड़े हों - ये सभी दु:खी हैं। जिन्हें ज्ञानानन्दस्वभाव का आश्रय नहीं है, वे दुखी हैं।' शुभ और अशुभ के फल में देहगत दुःख ही है; इसलिए निश्चय से दोनों समान हैं। इसलिए ये दया-दानादि के परिणाम अच्छे हैं और झूठ चोरी के भाव खराब हैं - ऐसी पृथकत्व व्यवस्था नहीं रहती। दोनों संसार के कारण हैं। ___ पैसेवाले, राजा अथवा देवादिक देह के दुख को अनुभवते हैं; इसलिए वास्तव में शुभ अशुभ की भिन्नता करके एक में लाभ मानना और दूसरे में नुकसान मानना सही नहीं हैं। इसतरह दोनों का फल समान है, क्योंकि शुभ उपयोग और अशुभ उपयोग दोनों आस्रव हैं, मलिन भाव हैं । इसलिए अशुद्धोपयोग में शुभ और अशुभ - ऐसे भेद सच्ची दृष्टि में घटित नहीं होते; क्योंकि दोनों ही सामग्री देते हैं, स्वभाव नहीं।' इस गाथा में यह कहा गया है कि पुण्योदयवाले देवादिक और पापोदयवाले नारकी आदि समानरूप से दुख का ही अनुभव करते हैं; अत: दोनों समान हैं, इनमें कोई अन्तर नहीं है। यह बात जगत के गले आसानी से नहीं उतरती; क्योंकि जगत में पुण्योदयवाले अनुकूल संयोगों को और पापोदयवाले प्रतिकूल संयोगों को भोगते दिखाई देते हैं। यदि ऊपर-ऊपर से देखेंगे तो ऐसा ही दिखेगा; किन्तु गहराई में जाकर देखते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि पुण्योदयवाले सुखी होते, आकुलित नहीं होते तो अत्यन्त गंदे, ग्लानि उत्पन्न करनेवाले विषयों को बड़ी वेशर्मताई से भोगते दिखाई नहीं देते। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१४६ २. वही, पृष्ठ-१४६ ३. वही, पृष्ठ-१४६ ४. वही, पृष्ठ-१४७ पंचेन्द्रियों के विषय मलिन हैं; आदि, मध्य और अन्त में ताप उत्पन्न करनेवाले हैं; पापबंध के कारण हैं - ऐसा जानते हुए भी उन्हीं में रत रहना दुखी होने की ही निशानी है, सुखी होने की नहीं। यह बात तो अत्यन्त स्पष्ट है ही कि जब पंचेन्द्रियों के विषयों का सेवन पापरूप है, सेवन करने का भाव पापभाव है और पापबंध का कारण है। इसप्रकार आद्योपान्त पापरूप होने से विषयों का सेवन करनेवाले पापी दु:खी हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि पंचेन्द्रिय विषयों की उपलब्धि में पुण्य का उदय निमित्त है। मात्र इतने से पापभावों का सेवन करनेवाले सुखी नहीं हो जाते । वे सुखी जैसे दिखाई देते हैं; पर सुखी नहीं हैं; परमार्थ से वे दुखी ही हैं। इस गाथा में यही बात समझाई गई है। बदलना भी हमारे हित में पर्यायों की परिवर्तनशीलता वस्तु का पर्यायगत स्वभाव होने से आत्मार्थी के लिए हितकर ही है। क्योंकि यदि पर्यायें परिवर्तनशील नहीं होतीं तो फिर संसारपर्याय का अभाव होकर मोक्षपर्याय प्रकट होने के लिए अवकाश भी नहीं रहता। __ अनन्तसुखरूप मोक्ष-अवस्था सर्वसंयोगों के अभावरूप ही होती है। यदि संयोग अस्थाई न होकर स्थाई होते तो फिर मोक्ष कैसे होता? अत: संयोगों की विनाशीकता भी आत्मा के हित में ही है। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-२८
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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