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________________ प्रवचनसार अनुशीलन तथा शरीर धर्म का साधन नहीं, अपितु अपना ज्ञानानन्दस्वभाव धर्म का साधन है। आत्मा अपने स्वरूप को भूलकर स्वयं सुख-दुःखरूप होता है। स्वयं ज्ञानानन्द स्वरूप है, उसे भूलकर जो संयोगों को हितकर तथा अहितकर मानता है, वह दुख का कारण है। शरीर सुन्दर मिले, पुत्रपुत्री अच्छे मिले तो वहाँ ठीकपने की कल्पना करता है और मुझे सुख मिला है - ऐसा मानता है; किन्तु यह माना हुआ सुख भी पर के कारण नहीं हुआ है; क्योंकि यदि पैसे के कारण सुख हो तो पैसा जब हो, तबतब हर समय सुख होना चाहिए। २८८ पच्चीस हजार की अंगूठी पहन कर निकला हो और रास्तें में किसी बदमाश ने पीट कर अंगूठी छीन ली हो; तब विचार करता है कि यदि अंगूठी पहनकर नहीं आया होता तो सुख होता। पहले मानता था कि अंगूठी पहनने से शोभा है और अब नहीं पहनने में सुख मानता है; इसप्रकार कल्पना करता है, किन्तु अंगूठी सुख-दुःख का कारण नहीं है। " इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि शरीरादि संयोग न तो सुख के कारण हैं और न दुःख के कारण हैं; क्योंकि वे तो अपने आत्मा के लिए परद्रव्य हैं। परद्रव्य न तो हमें सुख ही देता है और न दुख देता है। हमारे सुख-दुख के कारण हममें ही विद्यमान हैं। हम अपनी पर्यायस्वभावगत योग्यता के कारण ही जब पर-पदार्थों में अपनापन करते हैं, उनके लक्ष्य से राग-द्वेष करते हैं, उन्हें सुख-दुख का कारण मानते हैं तो स्वयं सुखी - दुखी होते हैं। आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला अतीन्द्रियसुख तो शरीरादि संयोगों के कारण होता ही नहीं है; किन्तु लौकिक सुख-दुख- - इन्द्रियजन्य सुख-दुख भी देहादि संयोगों के कारण नहीं होते । तात्पर्य यह है कि देह का क्रिया से न धर्म होता है, न पुण्य और न पाप । ये सभी भाव आत्मा से ही होते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- ११५-११६ प्रवचनसार गाथा - ६७-६८ विगत गाथाओं में जोर देकर यह कहते आ रहे हैं कि शरीरधारी प्राणियों को सुख-दुःख का कारण शरीर नहीं है; अपितु उनका आत्मा ही स्वयं अपनी उपादानगत योग्यता से अथवा अपने अशुद्ध-उपादान से स्वयं सांसारिक सुख - दुखरूप परिणमित होता है। अब आगामी गाथाओं में यह कह रहे हैं कि न केवल देह ही, अपितु पाँच इन्द्रियों के विषय भी संसारी जीवों को सुख-दुख में कारण नहीं है। वस्तुत: बात यह है कि संसारी जीव अपनी अशुद्धोपादानगत योग्यता के कारण सुखी - दुःखी हैं और सिद्ध भगवान अपनी शुद्धोपादानगत योग्यता के कारण अनंतसुखी हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं तिमिरहरा जड़ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति । । ६७ । । सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोके तहा देवो ।। ६८ ।। ( हरिगीत ) तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करे । जब जिय स्वयं सुखरूप हो इन्द्रिय विषय तब क्या करें ।। ६७ जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजरु देव है । बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुख अर देव हैं ।। ६८ ।। यदि किसी की दृष्टि अन्धकारनाशक हो तो उसे दीपक की आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार जब आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमित होता है, तब विषय क्या कर सकते हैं, विषयों का क्या काम है ? जिसप्रकार आकाश में सूर्य स्वयं से ही तेज, उष्ण और देव है; उसीप्रकार लोक में सिद्ध भगवान भी स्वयं से ही ज्ञान, सुख और देव हैं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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