SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ प्रवचनसार अनुशीलन महादुखी हैं। ये पंचेन्द्रियों के भोग दुखी होने की निशानी हैं, सुखी होने की नहीं। आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव अतिसंक्षेप में इसीप्रकार व्यक्त किया है। कविवर वृन्दावनदासजी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से चार छन्दों में इन दोनों गाथाओं के भाव को समेट लिया है। उनमें से महत्त्वपूर्ण दो छन्द इसप्रकार हैं (माधवी) नर इन्द्र सुरासुर इन्द्रनि को सहजै जब इन्द्रियरोग सतावै । तब पीड़ित होकर गोगन को नित भोग मनोगन मांहि रमावै ।। तहाँ चाह की दाह नवीन बढे घृतआहुति में जिमि आगि जगावै । सहजानंद बोध विलास विना नहिं ओस के दसों प्यास बुझावै॥३२॥ चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्रों को जब सहजभाव से इन्द्रियरोग सताते हैं; तब वे पीड़ित होकर स्वयं को पाँच इन्द्रियों के मनोरम भोगों में रमा देते हैं। ऐसा करने पर जिसप्रकार अग्नि में घी डालने से वह और अधिक उग्रता से जलने लगती है; उसीप्रकार इन भोगों से विषय चाह की दाह और अधिक उग्र हो जाती है। अरे भाई! सहजानंद और ज्ञान के विलास के बिना भोगों से यह उसीप्रकार शान्त नहीं होती, जिसप्रकार ओंस की बूंद से प्यास नहीं बुझती। (षट्पद) जिन जीवनि को विषयमाहिं रतिरूप भाव है। तिनके उर में सहज दुःख दीखत जनाव है ।। जो सुभावतें दुःखरूप इन्द्री नहिं होई। तो विषयनि के हेत करत व्यापार न कोई ।। करि मच्छ द्विरेफ शलभ हरिन विषयनि-वश तन परहरहिं । यात इन्द्रीसुख दुखमई कही सुगुरु भवि उर धरहिं ।।३५।। गाथा-६३-६४ ૨૮૨ जिन जीवों को पंचेन्द्रिय विषयों में रागभाव है; उनके हृदय में सहजभाव से दुख दिखाई देता है। यदि संसारी प्राणियों को स्वाभाविक दुख नहीं होता तो उनकी प्रवृत्ति गंदे इन्द्रिय विषयों की ओर नहीं होती। हाथी, मछली, भौंरा, पतंगा और हिरण पंचेन्द्रियों के विषयवश ही प्राण छोड़ते हैं; इसलिए इन्द्रियसुख दुखरूप ही है। यह बात सुगुरु ने कही है; इसलिए हे भव्यजीवो ! इसे हृदय में धारण करो। देखो, उक्त छन्द की एक पंक्ति में पाँचों इन्द्रियों संबंधी पाँच उदाहरणों को समेट लिया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं पर प्रवचन करते हुए कहते हैं___ “परोक्षज्ञानवाले का इन्द्रियसुख वास्तव में सुख नहीं है। वह थोड़े समय का, एकपल का, जरा-सा भी सुख नहीं है; अपितु दु:ख ही है। परोक्षज्ञानवाला सामग्री को ढूँढता है; इसलिए उसे थोड़ा भी सुख नहीं है। मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र स्वाभाविक इन्द्रियों से पीड़ित होने से उन्हें स्वाभाविक आकुलता है; आकुलता होने से वे रम्य विषयों में रमते हैं; इसलिए वे थोड़े भी सुखी नहीं हैं।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि बड़े-बड़े पुण्यवान मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवों में देवेन्द्र और असुरों में असुरेन्द्र सभी दुखी हैं, सुखी कोई भी नहीं। वस्तुत: बात यह है कि संसार में सुख है ही नहीं। जिसे संसार में सुख कहा जाता है, वह सुख नहीं, दुख ही है और जिसे हम सुखसामग्री कहते हैं, वह सुखसामग्री नहीं, भोगसामग्री ही है, दुखसामग्री ही है। यदि चक्रवर्ती आदि दुखी नहीं होते तो विषय भोगों में क्यों उलझते, क्यों रमते? अत: यह सुनिश्चित ही है कि परोक्षज्ञानी सुखी नहीं हैं; सुखी तो प्रत्यक्षज्ञानी केवलज्ञानी ही हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-९७
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy