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________________ प्रवचनसार गाथा - ६१-६२ विगत गाथाओं में यह कहते आ रहे हैं कि अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है, अतीन्द्रियसुखस्वरूप ही है; अब उसी बात का उपसंहार करते हुए उसकी श्रद्धा करने की प्रेरणा देते हैं । गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी । णट्टमणिट्टं सव्वं इट्टं पुण जं तु तं लद्धं । । ६१ ।। णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं । सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ।। ६२ ।। ( हरिगीत ) अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है। हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं । । ६१ ।। घातियों से रहित सुख ही परमसुख यह श्रवण कर । भी न करें श्रद्धा अभवि भवि भाव से श्रद्धा करें ।। ६२ ।। केवलज्ञानी का ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है, दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुके हैं और जो इष्ट हैं, वे सब प्राप्त हो गये हैं; इसकारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है। जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं; उनका सुख परमोत्कृष्ट है - ऐसा वचन सुनकर भी अभव्य श्रद्धा नहीं करते और भव्य उक्त बात को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करते हैं। इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “सुख का कारण स्वभाव प्रतिघात का अभाव है। आत्मा का स्वभाव दर्शन - ज्ञान है । केवलज्ञानी के उनके प्रतिघात का अभाव है; क्योंकि दर्शन गाथा - ६१-६२ २७५ लोकालोक में विस्तृत होने से और ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त होने से दर्शन - ज्ञान स्वच्छन्दतापूर्वक विकसित हैं। इसप्रकार स्वभाव के प्रतिघात के अभाव के कारण सुख अभेद विवक्षा से केवलज्ञान का स्वरूप है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान सुख ही है; क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो गया है और सम्पूर्ण इष्ट की प्राप्ति हो चुकी है। केवलज्ञान की अवस्था में सुखप्राप्ति के विरोधी दुखों के साधनभूत अज्ञान का सम्पूर्णतया नाश और सुख के साधनभूत पूर्णज्ञान का उत्पाद इस बात की गारंटी है कि केवलज्ञान सुख ही है। अधिक विस्तार से क्या लाभ है ? इस लोक में मोहनीय आदि कर्मजालवालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभास को सुख कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है और जिनके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं; उन केवली भगवान के स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के वास्तविक कारण और लक्षण का सद्भाव होने से पारमार्थिक सुख है - ऐसी श्रद्धा करनेयोग्य है । जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है; वे मोक्षसुख से दूर रहनेवाले अभव्य मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते हैं; अनुभव करते हैं और जो उक्त वचनों को तत्काल स्वीकार करते हैं; वे मोक्षलक्ष्मी के पात्र आसन्नभव्य हैं और जो आगे जाकर दूर भविष्य में स्वीकार करेंगे, वे दूरभव्य हैं। " आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रवचनसार की सरोज भास्कर टीका में ६१वीं गाथा की टीका करते हुए लिखा है कि अन्तराय और मोहनीय अनिष्ट हैं और अनंतवीर्य और अनंतसुख इष्ट हैं। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में ६१वीं गाथा का अर्थ तो तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; किन्तु उन्हें ६२वीं गाथा की टीका के अर्थ में कुछ विशेष स्पष्टीकरण अभीष्ट है; क्योंकि यह कैसे
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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