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________________ २६४ प्रवचनसार अनुशीलन ज्ञान से जानता है, वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाता है - यह बात प्रमाणसिद्ध है। पर की सहायता के बिना होनेवाला यह निर्मल प्रत्यक्षज्ञान अतीन्द्रिय आनंद के कंदरूप है, अतीन्द्रिय आनन्दमयी है। इन गाथाओं का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “पाँचों इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं। वे इन्द्रियाँ आत्मा के स्वभाव को स्पर्श नहीं करतीं। भगवान आत्मा अपने स्वभाव से भरा है । इन्द्रियों में आत्मस्वभाव बिल्कुल भी नहीं है।' जो ज्ञान की पर्याय इन्द्रिय का अवलम्बन लेकर काम करे; वह ज्ञान किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता; इसलिए वह सुखरूप भी नहीं हो सकता। पाँच इन्द्रियों का उघाड़ होने पर भी, एक इन्द्रिय का उघाड़ ही काम करता है; इसलिए निर्णय कर कि आत्मा का ज्ञानस्वभाव है - ऐसी अंतर श्रद्धा, ज्ञान और लीनता से केवलज्ञानी होता है। जोसीधा आत्मा के द्वारा ही जानता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। इन्द्रियज्ञान तो परद्रव्यरूप इन्द्रियों के द्वारा जानता है; इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं है।' इन्द्रिय के अवलम्बन से जो कार्य होता है, वह दुःखरूप और पराधीन है। इन्द्रिय के निमित्त से जो ज्ञान का कार्य होता है, वह परोक्ष है और जो आत्मसापेक्ष ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है - यह बात यहाँ चलती है।" इन गाथाओं में सबकुछ मिलाकर मात्र इतना ही कहा गया है कि इन्द्रियाँ, प्रकाश, क्षयोपशमरूपलब्धि, संस्कार आदि परद्रव्यों के सहयोग से होनेवाला ज्ञान परोक्षज्ञान है और पर के सहयोग बिना सीधा आत्मा से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान है । पराधीनता का सूचक परोक्षज्ञान अतीन्द्रिय सुख का कारण नहीं हो सकता; अतीन्द्रियसुख का कारण तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्षश्यावस्ती होग-२, पृष्ठ-४७ २. वही, पृष्ठ-४७ ३. वही, पृष्ठ-४९ ४. वही, पृष्ठ-४९ ५. वही, पृष्ठ-४९ प्रवचनसार गाथा-५९ विगत गाथा में परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान का स्वरूप बताया गया है और इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि परमार्थ सुख की प्राप्ति तो प्रत्यक्षज्ञान वाले को ही होती है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैजादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगतियं भणिदं ।।५९।। (हरिगीत) स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित । अवग्रहादिविरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने ।।५९।। सर्वात्मप्रदेशों से अपने आप ही उत्पन्न, अनंत पदार्थों में विस्तृत, विमल और अवग्रहादि से रहित ज्ञान एकान्ततः सुख है - ऐसा कहा गया है। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “चारों ओर से, स्वयं उत्पन्न होने से, अनंत पदार्थों में विस्तृत होने से, विमल होने से, अवग्रहादि से रहित होने से प्रत्यक्षज्ञान एकान्तिक सुख है - यह निश्चित होता है; क्योंकि एकमात्र अनाकुलता ही सुख का लक्षण है। पर से उत्पन्न होने से पराधीनता के कारण, असमंत होने से अन्य द्वारों से आवरित होने के कारण, मात्र कुछ पदार्थों को जानने से अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण, समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण और अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होनेवाले पदार्थ ग्रहण के खेद के कारण परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुल है, इसलिए वह परमार्थ सुख
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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