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________________ प्रवचनसार अनुशीलन महाशास्त्र प्रवचनसार की मंगलाचरण संबंधी उक्त पाँच गाथाओं की उत्थानिका लिखते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस टीका को न केवल मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए लिखा गया निरूपित करते हैं; अपितु यह भी लिखते हैं कि यह टीका शिवकुमार नामक आसन्नभव्य राजा के निमित्त से लिखी गई है। आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका किसी व्यक्ति विशेष के लक्ष्य से नहीं; अपितु परमानन्द के प्यासे सभी भव्यों के हित की भावना से लिखी गई है; किन्तु आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति शिवकुमार नामक राजा के निमित्त से लिखी गई है। शिवकुमार राजा के निमित्त से लिखी गई यह टीका भी सर्वोपयोगी है, सबके हित का उत्कृष्ट निमित्त है। मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्य संबंधी गाथासूत्र मूलतः इसप्रकार एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।। सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे । समणे य णाणदसणचरित्ततववीरियायारे ।।२।। ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते अरहते माणुसे खेत्ते ।।३।। किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसि ।।४।। तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज । उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।।५।। (हरिगीत) सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वृषतीर्थ के करतार श्री वर्धमान जिन शत-शत नमन ।।१।। अवशेष तीर्थंकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन । गाथा-१-५ मैं भक्तिपूर्वक नमूं पंचाचारयुत सब श्रमणजन ।।२।। उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को। मैं नमूं विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को ।।३।। अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण । अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ।।४।। परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर । निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ ।।५।। जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों से वंदित हैं तथा जिन्होंने घातिकर्मरूपी मल को धो डाला है; ऐसे तीर्थरूप और धर्म के कर्ता श्री वर्द्धमान तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ। विशुद्ध सत्तावाले शेष तीर्थंकरों, सर्वसिद्धों और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार से सहित सभी श्रमणों को नमस्कार करता हूँ। उन सभी को और मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाई द्वीप में सदा विद्यमान रहनेवाले अरहंतों को समुदायरूप से एकसाथ और व्यक्तिगतरूप से प्रत्येक को अलग-अलग वंदन करता हूँ। ___ इसप्रकार अरहंतों को, सिद्धों को, गणधरादि आचार्यों को, उपाध्यायों को और सर्वसाधुओं को नमस्कार करके उनके विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रम को प्राप्त करके, जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है, उस साम्यभाव को मैं प्राप्त करता हूँ। इन गाथाओं में वर्तमान तीर्थ के नायक होने से एकमात्र भगवान महावीर को नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार किया गया है; शेष परमेष्ठियों को यद्यपि सामूहिक रूप से ही याद किया गया है; तथापि ऐसा लिखकर कि सभी को सामूहिक रूप से और प्रत्येक को व्यक्तिगतरूप से नमस्कार करता हूँ, उनके प्रति होनेवाली उपेक्षा को कम करते हुए परोक्षरूप से यह
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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