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________________ प्रवचनसार गाथा- ४९ ४८वीं गाथा में यह कहा गया है कि जो तीनलोक और तीनकाल के सभी पदार्थों को एकसाथ नहीं जानता, वह सम्पूर्ण पर्यायों सहित अपने आत्मा को भी नहीं जान सकता । अब इस ४९वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि जो एक अपने आत्मा को भी पूर्णत: नहीं जानता है, वह सबको सम्पूर्णत: कैसे जान सकता है ? गाथा मूलतः इसप्रकार है - दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि । ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि । । ४९ ।। ( हरिगीत ) इक द्रव्य को पर्यय सहित यदि नहीं जाने जीव तो । फिर जान कैसे सकेगा इक साथ द्रव्यसमूह को ||४९ ।। जो अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्य (आत्मद्रव्य) को नहीं जानता; वह एक ही साथ सर्व अनन्त द्रव्यों को कैसे जान सकता है ? इस गाथा का अर्थ प्रकारान्तर से इसप्रकार भी किया जाता है - “यदि अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को, आत्मद्रव्य को तथा अनंत द्रव्यसमूह को जो पुरुष नहीं जानता है; वह सबको अर्थात् अनंत द्रव्यसमूह को कैसे जान सकता है ?" उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "प्रथम तो यह आत्मा ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण वस्तुतः ज्ञान ही है और वह ज्ञान प्रत्येक आत्मा में रहता हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है । वह प्रतिभासमय महासामान्य प्रतिभासमय अनंत विशेषों में व्याप्त होनेवाला है और उन विशेषों के निमित्त सर्व द्रव्य-पर्याय हैं। २३३ अब जो आत्मा; सर्व द्रव्य-पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनंत विशेषों में व्याप्त होनेवाले प्रतिसमय महासामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता; वह प्रतिभासमय महासामान्य के द्वारा व्याप्य प्रतिभासमय अनंत विशेषों के निमित्तभूत सर्व द्रव्य-पर्यायों को प्रत्यक्ष कैसे कर सकेगा ? गाथा- ४९ इससे यही फलित होता है कि जो आत्मा को नहीं जानता; वह सबको भी नहीं जानता । इससे यह निश्चित होता है कि सबके ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और आत्मा के ज्ञान से सबका ज्ञान होता है। ऐसा होने पर आत्मा ज्ञानमयता के कारण स्वसंचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी प्रतिभास और प्रतिभासमान इन दोनों का स्व-अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण उनमें भेदभाव करना अत्यन्त अशक्य होने से सर्व पदार्थसमूह आत्मा में प्रविष्ट हो गये हों की भांति प्रतिभासित होता है, ज्ञात होता है । यदि ऐसा न हो तो, यदि आत्मा सबको न जानता हो तो ज्ञान के परिपूर्ण आत्मसंचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध नहीं होगा । " यद्यपि आचार्य जयसेन इस गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं; तथापि वे स्वयं शंका उपस्थित कर उसका समाधान इसप्रकार करते हैं - "अब यहाँ शिष्य कहता है कि आत्मा का ज्ञान होने पर सबका ज्ञान होता है - ऐसा यहाँ कहा गया है; किन्तु विगत गाथा में कहा गया था कि सबका ज्ञान होने पर आत्मा का ज्ञान होता है। यदि ऐसा है तो छद्मस्थों को तो सबका ज्ञान नहीं होता, उन्हें आत्मज्ञान कैसे होगा? आत्मज्ञान के अभाव में आत्मभावना भी कैसे हो सकती है ?
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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