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________________ गाथा-४८ २२७ प्रवचनसार गाथा-४८ विगत गाथा में यह बताया गया था कि अतीन्द्रियज्ञान, क्षायिकज्ञान, केवलज्ञान; तात्कालिक-अतात्कालिक, विचित्र और विषम - सभी पदार्थों को सर्वात्मप्रदेशों से एकसाथ जानता है। अब इस ४८ वीं गाथा में उसी बात को सिद्ध करते हुए यह कहा जा रहा है कि जो ज्ञान सबको नहीं जानता; वह ज्ञान एक अपने आत्मा को भी सम्पूर्णत: नहीं जान सकता। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जोण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिवणत्थे। णादुं तस्स ण सक्कं सपजयं दव्वमेगं वा ।।४८।। (हरिगीत) जाने नहीं युगपद् त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के। वह जान सकता है नहीं पर्यय सहित इक द्रव्य को ।।४८।। जो तीनकाल और तीनलोक के सभी पदार्थों को एक ही साथ नहीं जानता; वह पर्यायों सहित एक द्रव्य को भी नहीं जान सकता। उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इस विश्व में एक आकाशद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य, अनंत जीवद्रव्य और जीवद्रव्यों से भी अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं। उन सभी द्रव्यों की अर्थात् प्रत्येक द्रव्य की अतीत, अनागत और वर्तमान भेदवाली निरवधि (अनादि-अनन्त) वृत्तिप्रवाह के भीतर पड़नेवाली अनन्त पर्यायें हैं। यह समस्त द्रव्य और पर्यायों का समुदाय ज्ञेय है और इन्हीं सबमें से एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है। अब यहाँ जिसप्रकार समस्त दाह्य (ईंधन) को जलाती हुई अग्नि, समस्त दाह्य जिसका निमित्त है - ऐसे समस्त दाह्याकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार (स्वरूप) है - ऐसे एक अपनेरूप (अग्निरूप) परिणमित होती है; उसीप्रकार समस्त ज्ञेयों को जानता हुआ ज्ञाता आत्मा समस्त ज्ञेय जिसका निमित्त है - ऐसे समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है - ऐसे निजरूप से जो चेतनता के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष है - उसरूप परिणमित होता है। वस्तुतः द्रव्य का ऐसा स्वभाव है। किन्तु जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता, वह आत्मा; जिसप्रकार समस्त दाह्य को नहीं जलाती हुई अग्नि समस्त दाह्यहेतुक समस्त दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार (स्वरूप) है , ऐसे अपनेरूप में परिणमित नहीं होती; उसीप्रकार समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार है; ऐसे अपने रूप में - स्वयं चेतनता के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष होने पर भी - परिणमित नहीं होता अर्थात् अपने को परिपूर्णतया अनुभव नहीं करता, नहीं जानता। इसप्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता, वह अपने आत्मा को भी नहीं जानता।" यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि इन्हीं सबमें से एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है' - ऐसा कहकर यहाँ क्या कहना चाहते हैं; क्या सभी जीवद्रव्य ज्ञाता नहीं हैं? अरे भाई ! ज्ञाता तो सभी जीव हैं, किन्तु सभी जीवद्रव्य ज्ञेय भी हैं। जब एक जीवद्रव्य जानने का काम करता है, जानता है, सभी को जानता है; तब वह अकेला स्वयं ज्ञाता होता है और अन्य अजीव द्रव्यों के साथसाथ उससे भिन्न शेष जीवद्रव्य भी ज्ञेय ही होते हैं। इसप्रकार प्रत्येक जीव
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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