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________________ २२० प्रवचनसार अनुशीलन से संसार के अभावरूप स्वभाव के कारण नित्यमुक्तता को प्राप्त हो जावेंगे; किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्फटिक मणि के जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंगरूप स्वभावपने की तरह आत्मा के परिणामधर्मपना होने से शुभाशुभस्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार स्फटिक मणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले स्वभावरूप परिणमित होता दिखाई देता है; उसीप्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभाशुभभावरूप परिणमित होता दिखाई देता है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को नयविवक्षा से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सांख्यों जैसी मान्यतावाला कोई शिष्य यदि ऐसा कहे कि जिसप्रकार आत्मा शुद्धनय से शुभाशुभभावरूप परिणमित नहीं होता; उसीप्रकार अशुद्धनय से भी शुभाशुभभावरूप परिणमित नहीं होता हो तो व्यवहारनय से भी समस्त जीवों के संसार का अभाव हो जाये और सभी जीव सदा मुक्त ही सिद्ध हो जायेंगे । इस पर वह सांख्यमतानुयायी शिष्य कहता है कि संसार का अभाव होता है तो हो जाने दो, वह तो हमारे लिए भूषण है, दूषण नहीं। उससे कहते हैं कि यह तो प्रत्यक्ष विरुद्ध बात है; क्योंकि संसारी जीवों के शुभाशुभभाव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा के भाव को दो छन्दों में स्पष्ट करते हैं। दूसरे छन्द में तो सांख्यमत की मान्यता को ही स्पष्ट किया है, प्रथम छन्द में गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत किया है - (माधवी ) जदि आत आप सुभावहितैं स्वयमेव शुभाशुभरूप न होई । तदि तौ न चहै सब जीवनि के जगजाल दशा चहिये नहिं कोई ।। जब बंध नहीं तब भोग कहां जो बंधै सोई भोगवै भोग तितोई । यह पच्छ प्रतच्छ प्रमानतैं साधते खंडन सांख्यमतीनि कौ होई ।। २१६ ।। गाथा-४६ २२१ यदि आत्मा स्वयं स्वभाव से ही शुभाशुभभावरूप परिणमित न होता हो तो फिर किसी भी जीव की संसारदशा नहीं होना चाहिए। जब बंध ही नहीं होगा तो उसके फल का उपभोग भी कैसे होगा; क्योंकि बंधनेवाला ही भोगता है। 'आत्मा स्वभाव से रागादि भावोंरूप परिणमित नहीं होता' - यह सांख्यों जैसी मान्यता प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बाधित है। इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. - " 'अब स्वभाव में विकार नहीं - ऐसा कहा; इसलिए कोई अज्ञानी ऐसा माने कि 'विकार पर्याय में नहीं है' तो यह भ्रम है। संसारपर्यायरूप जीव स्वयं परिणमित होता है और पर्याय आत्मा का अंश है; इसकारण अंशी आत्मा स्वयं विकाररूप क्षणिक परिणमित होता है, निमित्त का आश्रय करके स्वयं परिणमित होता है और यदि स्वभाव का आश्रय ले तो विकार छूट जाता है। पर्याय में अशुद्धता है; किन्तु स्वभाव में अशुद्धता नहीं है - ऐसे स्वभाव का भान करे तो मिथ्यात्व की अशुद्धता दूर हो जायेगी और अंतर स्थिर होने पर राग-द्वेष दूर होंगे। ऐसा होने पर पूर्ण वीतरागता होगी। इसी का नाम धार्मिक क्रिया है। आत्मा ज्ञानस्वरूप चैतन्य है; यदि उसकी पर्याय में भी केवली भगवान के समान विकार नहीं हो तो संसार सिद्ध नहीं होगा। आत्मा आदि अन्त रहित है। जैसे सिद्धों की पर्याय में मोह-राग-द्वेष नहीं है; वैसे ही इस संसारी की पर्याय में भी मोह - राग-द्वेष नहीं हो तो मोह-राग-द्वेष हेय नहीं रहते । आत्मा परिणाम धर्मवाला है और अपनी पर्याय में विकार होता है - ऐसा निश्चित करे तो उसे हेय कर सकेगा; क्योंकि स्वभाव में लीनता होने पर विकार हेय हो जाता है। देखो ! यहाँ अपनी विकारी पर्याय को शुद्धपने कहा है। यहाँ अपनी अशुद्धता अपने से होती है - ऐसा बताने के लिए शुद्धपना कहा है और १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३६५ ३. वही, पृष्ठ-३६६ २. वही, पृष्ठ- ३६५ ४. वही, पृष्ठ- ३६७-३६८
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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