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________________ २१२ प्रवचनसार अनुशीलन उसकी प्रामाणिकता का आधार क्या है ? अरे भाई ! उपादान-उपादेय संबंध नहीं है और अंतरंगनिमित्त की अपेक्षा निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी नहीं है; फिर भी बहिरंग निमित्त की अपेक्षा सूर्य और कमल के समान अरिहंत भगवान और दिव्यध्वनि में सहज निमित्त-नैमित्तिकभाव तो है ही और दिव्यध्वनि की प्रामाणिकता का आधार भी यही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दिव्यध्वनि में वस्तु का स्वरूप जैसा प्रतिपादित हुआ है; वस्तु भी ठीक उसीप्रकार की है। प्रामाणिकता के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ? ___कुछ लोगइस गाथा में समागत मायाचारो व्व इत्थीणं पद पर बहुत नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनका कहना है कि स्त्रियों में मायाचार स्वभावगत है - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने महिलाओं का अपमान किया है। कुछ लोग तो यहाँ तक आगे बढ़ते हैं कि इस पद को बदल देना चाहिए। उनकी सलाह के अनुसार मायाचार के स्थान पर मातृकाचार कर देना चाहिए। पर भाई, इसमें किसी की निन्दा-प्रशंसा की बात ही कहाँ है ? आचार्यदेव की माँ-बहिन भी तो महिलायें ही थीं। तीर्थंकरों की मातायें भी तो महिला ही होती हैं। उक्त कथन को स्त्रीनिन्दा के रूप में देखना समझदारी का काम नहीं है। यह स्त्री पर्याय में सहजभाव से होनेवाले भाव की बात है। महिलाओं के स्वभावगत मायाचार की तुलना भी तो अरिहंत केवली के विहारादि कायिक क्रियाओं और केवली की दिव्यध्वनि से की है। क्या वे दिव्यध्वनि की निन्दा करना चाहते हैं ? दूसरे किसी भी आचार्य की कृति में फेरफार करने का अधिकार भी हमें कहाँ है ? जब आचार्य अमृतचन्द्र, आचार्य जयसेन, सहजानन्दजी वर्णी, पाण्डे हेमराजजी, कविवर वृन्दावनदासजी एवं आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी आदि सभी को यह सहजभाव से स्वीकार है और इसमें उन्हें महिलाओं का अपमान नहीं दिखाई देता है तो फिर हमें ऐसा विकल्प क्यों आता है? प्रवचनसार गाथा-४५ विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि यद्यपि भव्यों के भाग्य और अरिहंत भगवान के पूर्व पुण्योदय के अनुसार दिव्यध्वनि प्रसारण व विहारादि कार्य देखे जाते हैं; तथापि मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उन्हें बंध नहीं होता। अब इस गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हुए कह रहे हैं कि इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकिंचित्कर ही है। पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ।।४५।। (हरिगीत) पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही। मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई।४५।। अरिहंत भगवान पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिरहित है; इसकारण वह औदयिकी क्रिया भी क्षायिकी मानी गई है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार करते हैं “जिनके पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भलीभांति पक गये हैं; उन अरिहंत भगवान की जो भी क्रिया है, वह सब पुण्य के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है। महामोह राजा की समस्त सेना के क्षय से उत्पन्न होने से मोह-राग-द्वेषरूपी उपरंजकों के अभाव के कारण से वह औदयिकी क्रिया भी चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती। इसकारण उक्त औदयिकी क्रिया को कार्यभूत बंध की अकारणता और कार्यभूत मोक्ष की कारणता के कारण क्षायिकी ही क्यों न मानी जाय? अर्थात् उसे क्षायिकी ही मानना चाहिए।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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