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________________ १९३ प्रवचनसार गाथा-३८-३९ विगत ३७ वीं गाथा में यह कहा था कि केवलज्ञान में सभी द्रव्यों की अतीत और भावी पर्यायें भी वर्तमान पर्यायों के समान ही झलकती हैं और अब ३८ व ३९वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि सभी द्रव्यों की भूत और भावी पर्यायें ज्ञान में विद्यमान ही हैं तथा जिस ज्ञान में भूत और भावी पर्यायें ज्ञात न हों, उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा? गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - जेणेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा ।।३८।। जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ।।३९।। (हरिगीत) पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं ।।३८।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो । फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो॥३९।। जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं या उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं; वे सभी अविद्यमान पर्यायें ज्ञान में तो प्रत्यक्ष ही हैं, विद्यमान ही हैं। यदि अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्यायें ज्ञान (केवलज्ञान) में प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा? इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो पर्यायें अभीतक उत्पन्न नहीं हुईं और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं; वे पर्यायें अविद्यमान होने पर भी ज्ञान के प्रति नियत होने से ज्ञान में गाथा-३८-३९ प्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावी तीर्थंकर देवों की भांति अपने स्वरूप को ज्ञान में अर्पित करती हुई विद्यमान ही हैं। जिन्होंने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया और जिन्होंने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है; ऐसी अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को यदि ज्ञान अपनी निर्विघ्न, अखंडित प्रतापयुक्त प्रभुशक्ति से बलात् प्राप्त करे तथा वे पर्यायें अपने स्वरूप सर्वस्व को अक्रम से अर्पित करें - इसप्रकार उन्हें अपने प्रति अर्पित न करें, उन्हें प्रत्यक्ष न जाने; तो उस ज्ञान की दिव्यता क्या है ? __इससे यह कहा गया है कि पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिए यह सब योग्य है।" इन गाथाओं के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "केवलज्ञानी को भविष्य की अवस्था का ज्ञान वर्तमान में होता है, इसलिए वे पदार्थ भी निमित्तरूप से वर्तमान ज्ञेयरूप हैं। यह पदार्थ पहले नहीं था, किन्तु मैंने किया - ऐसा माने तो फिर त्रिकालज्ञानी नहीं रहे; क्योंकि उन्हें भूतकाल का ज्ञान नहीं हुआ। भूतकाल की अवस्था और भविष्य की अवस्था वर्तमान में ज्ञात हो - ऐसा ज्ञेय का स्वभाव है और ज्ञान का जानने का स्वभाव है। एक समय का केवलज्ञान भूत और भविष्य की अवस्था को जानता है; इसलिए पर्याय निश्चित हो गई हैं और वे सर्वज्ञ के ज्ञान में चिपक गई हैं। अनन्तकाल की अनन्ती अवस्थाएँ जो बीत गई हैं और भविष्य की अनन्ती अवस्थाएँ जो होंगी वे सभी सर्वज्ञ के ज्ञान में सीधी ज्ञात होती हैं। ऐसा सर्वज्ञ के ज्ञान का निर्णय करें तो सभी अज्ञान दूर हो जाता है। __इस ३८वीं गाथा में ज्ञान में सभी प्रत्यक्ष कहकर ज्ञेयों की अवस्था वर्तमानवत् है - ऐसा बताते हैं । ज्ञान में भूतकाल और भविष्य की १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३०५ २. वही, पृष्ठ-३०५ ३.वही, पृष्ठ-३०६ ४. वही, पृष्ठ-३०६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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